पश्चिम बंगाल: मुसलमानों ने दिया हिंदू पड़ोसी की अर्थी को कंधा

  • प्रभाकर मणि तिवारी
  • कोलकाता से बीबीसी हिंदी के लिए
अंतिम यात्रा

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स्रोतः स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय

11: 30 IST को अपडेट किया गया

कोरोना वायरस के संक्रमण और ख़ासकर निज़ामुद्दीन में तब्लीग़ी जमात का मामला सामने आने के बाद देश में पनपे अविश्वास के माहौल में इस घटना पर सहजता से विश्वास होना मुश्किल है. लेकिन यह है सौ फ़ीसदी सच.

पश्चिम बंगाल के मालदा ज़िले के एक गांव के मुस्लिमों ने अपने हिंदू पड़ोसी की मौत के बाद लॉकडाउन के संकट के बीच न सिर्फ़ उसके शव को कंधा देकर 15 किमी दूर शवदाह गृह तक पहुंचाया बल्कि शव यात्रा के दौरान बंगाल में प्रचलित "बोलो हरि, हरि बोल" और "राम नाम सत्य है……" के नारे भी लगाए.

बंगाल से पहले भी सांप्रदायिक सद्भाव की ऐसी कई घटनाएं सामने आती रही हैं. मिसाल के तौर पर बीते साल पश्चिम बंगाल के उत्तर 24-परगना ज़िले के एक परिवार ने सांप्रदायिक सद्भाव की अनूठी मिसाल पेश करते हुए दुर्गा पूजा के दूसरे दिन अष्टमी को होने वाली कुमारी पूजा में चार साल की मुस्लिम बच्ची की पूजा की थी.

लेकिन मौजूदा घटना एकदम अलग है. मालदा ज़िले में कालियाचक-2 ब्लॉक के लोहाईतला गांव में 90 साल के बिनय साहा की मंगलवार देर रात को मौत के बाद उनके दोनों पुत्रों--कमल साहा और श्यामल साहा को समझ में नहीं आ रहा था कि वह लोग इस लॉकडाउन में अंतिम संस्कार की व्यवस्था कैसे करें.

अंतिम यात्रा

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सबसे बड़ी समस्या तो शव को 15 किमी दूर शवदाह गृह तक ले जाने की थी. गांव में साहा परिवार ही अकेला हिंदू परिवार है बाक़ी सौ से ज़्यादा मुस्लिम परिवार हैं. लॉकडाउन की वजह से साहा परिवार के रिश्तेदार भी मौक़े पर पहुंचने में असमर्थ थे.

लेकिन उनके सैकड़ों मुस्लिम पड़ोसी इस विपत्ति की घड़ी में मदद के लिए सामने आए. इनलोगों में जहां सतारुढ़ तृणमूल कांग्रेस से जुड़े लोग थे वहीं माकपा के भी कई सक्रिय कार्यकर्ता शामिल थे. उन्होंने न सिर्फ़ अर्थी को कंधा दिया बल्कि शव यात्रा के दौरान राम नाम सत्य है का नारा भी दिया. इनमें मुकुल शेख़, अस्करा बीबी, सद्दाम शेख़, रेज़ाउल करीम और दर्जनों दूसरे लोग भी शामिल थे.

बिनय साहा के पुत्र श्यामल बताते हैं, "मुस्लिम पड़ोसियों से घिरे होने के बावजूद बीस साल से गांव में रहने के दौरान हमने कभी ख़ुद को अकेला महसूस नहीं किया है. लेकिन पिताजी की मौत ने हमें चिंता में डाल दिया था. लॉकडाउन की वजह से हमारे दूसरे रिश्तेदार नहीं पहुंच सके."

वह बताते हैं कि हमारे लिए अकेले पिता के शव के 15 किमी दूर शवदाह गृह तक ले जाना संभव नहीं था. मुस्लिम पड़ोसियों से इस काम में मदद मांगने में भी हमें हिचिकचाहट हो रही थी.

साहा के पड़ोसी सद्दाम शेख़ को जब बिनय के निधन की ख़बर मिली तो उन्होंने फ़ौरन स्थानीय पंचायत प्रमुख और गांव के दूसरे युवकों को इसकी सूचना दी. देखते ही देखते पूरा गांव साहा के घर के बाहर जमा हो गया. बुधवार सुबह तमाम मुस्लिम युवक अर्थी सजाने की तैयारियों में जुट गए. कोई बांस काट रहा था तो कोई उसे फूलों से सजा रहा था. उसके बाद चार युवकों ने अर्थी को कंधे पर रखा और शवदाह गृह की ओर रवाना हो गए.

साहा के पड़ोसी और इलाक़े के माकपा कार्यकर्ता सद्दाम शेख़ कहते हैं, "मानवीय रिश्तों में धर्म कभी आड़े नहीं आता. हमने वही किया जो करना चाहिए था. धर्म अहम नहीं है. संकट के समय अपने पड़ोसी की मदद करना हमारा फ़र्ज़ था. एक अन्य पड़ोसी ग़ुलाम मुस्तफ़ा बताते हैं, "हम सबसे पहले इंसान है. हमने वही किया जो इंसानियत के नाते करना चाहिए था."

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स्थानीय ग्राम पंचायत की प्रमुख अस्करा बीबी और उनके पति मुकुल शेख़ ने साहा को हरसंभव सहायता का भरोसा दिया.

अस्करा बीबी कहती हैं, "बिनय साहा के अंतिम संस्कार ने इलाक़े के तमाम लोगों ने राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठ कर मदद की. शव को शवदाह गृह तक ले जाने और वहां दूसरी औपचारिकताओं को पूरा करने में मुस्लिम युवकों ने पूरी सहायता की."

इसी गांव के रहने वाले अमीनुल अहसान फिलहाल पूर्वी मेदिनीपुर में ज़िला स्कूल निरीक्षक के पद पर तैनात हैं. उन्होंने भी इस मामले की सूचना मिलने पर गांव में अपने परिचितों को फोन कर साहा परिवार की हरसंभव सहायता करने को कहा.

अमीनुल कहते हैं, "यह सांप्रदायिक सद्भाव ही भारत की असली पहचान है. यह आम लोगों के दिलों में ज़िंदा है. ज़रूरत इसे और मज़बूत करने की है."

समाजशास्त्री सोमेश्वर घोष कहते हैं, "धार्मिक मतभेदों से निपटने के लिए मानवता का पलड़ा हमेशा भारी रहना चाहिए. इस घटना ने सहनशीलता, धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सद्भाव की भारतीय परंपरा के प्रति हमारा भरोसा मज़बूत कर दिया है."

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