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#जीवनसंवाद : अच्छाई, एक बूमरैंग है!

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#जीवनसंवाद : अच्छाई, एक बूमरैंग है!

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#JeevanSamvad: जीवन में थोड़े से संसाधन मिलते ही हम अक्सर अपनी दिशाएं बदल लेते हैं. हम पुराने और स्थाई पुल तोड़ते जाते ...अधिक पढ़ें

कोरोना संकट के बीच वह बहुत से लोग सेवा का काम कर रहे हैं जिनके लिए ऐसा करना अनिवार्य नहीं है. वह खुद से आगे आ रहे हैं, सजग नागरिक से अधिक सजग मनुष्य के रूप में मानवता को मजबूत कर रहे हैं. संभव है कि आप केवल नागरिक हों तो अपने दायित्व से पीछे हट जाएं क्योंकि ऐसा करना किसी नियम के तहत जरूरी नहीं है.

लेकिन अगर आप मनुष्य हैं तो स्वयं को लोगों से अलग करके नहीं देख सकते. बहुत से लोग इसका उल्टा भी सोचते हैं. उनका जीवन केवल अपने सपनों के इर्द-गिर्द होता है. कोरोना के बीच जीवन और मनुष्यता के सकारात्मक उदाहरण भी देख रहे हैं. मनुष्य का चरित्र सबसे अधिक संकट के समय ही निखरता है. जब हम दूसरों के लिए अच्छे बन जाते हैं तो खुद के लिए और भी बेहतर होते जाते हैं. यह लंबी अवधि का आंतरिक परिवर्तन है. हमारी बातें, दूसरों से व्यवहार आज नहीं तो कल उसी रूप में लौटते हैं जिस रूप में हम उन्हें देते हैं.

इसीलिए, कहा जाता है अच्छाई एक बूमरैंग है. (बूमरैंग, ऑस्ट्रेलिया में उपयोग किया जाने वाला एक औजार है जो फेंके जाने पर वापस उसी के पास लौट कर चला आता है) जीवन में थोड़े से संसाधन मिलते ही हम अक्सर अपनी दिशाएं बदल लेते हैं. हम पुराने और स्थाई पुल तोड़ते जाते हैं, नई सीढ़ियां बनाने के लिए.


भोपाल से मनोज जोशी लिखते हैं, 'दूसरों की मदद जरूरत पड़ने पर क्यों नहीं करते? जबकि हम ऐसा करने में सक्षम भी होते हैं. अच्छाई एक मुश्किल आदत क्यों बनती जा रही है.' असल में यह प्रश्न व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी. यह दुनिया बहुत बड़ी और छोटी दोनों एक साथ हैं. अगर आप निरंतर दूसरों की मदद कर रहे हैं, तो आपका साथ देने अनेक लोग आतेे जाएंगे. क्योंकि हम वैसे ही लोगों से मानसिक रूप से आकर्षित होते हैं, जैसा हमारा आंतरिक मन चाहता है. भीतर ही भीतर हम सपने बुनते रहते हैं. एक दिन जब वह साकार होकर हमारेे सामने आ लगते हैं, तो दुनिया के लिए वह आश्चर्य हो सकता है लेकिन असल में आपके साथ वही हो रहा होता है जो भीतर से आप चाह रहे थे.

यह बात हमारे रिश्तों, निजी संबंधों और मित्रों पर बहुत हद तक लागू होती है. शहरी जीवन का एक दोष यह है कि वह अपने छोटे-छोटे किले बना लेता है. इन किलों के भीतर रहते हुए उसे लगता है वह अत्यंत सुरक्षित है. इनके भीतर रहते रहते-रहते एक आम शहरी कब अच्छाई की यादों को सामान्य से अपवाद में बदलता जाता है‌, उसे खुद भी पता नहीं चलता.


दूसरों की मदद, उनकी चिंता एक सामान्य, सहज मानवीय गुण हैं, जिससे हम मुक्त होते जा रहे हैं. अच्छा-अच्छा कहते हुए हमने अच्छाई को ठीक वैसे ही कैद कर लिया है, जैसे हम अच्छे नोटों को तुरंत दबा लेते हैं. उनको संग्रहित लेते हैं. इसीलिए, बाजार में खराब/कटे/फटे नोट कहीं अधिक दिखते हैं. अच्छे नोट होते तो हैं लेकिन वह घरों/हमारी अलमारियों में दबे रहते हैं. बाहर हमको वैसे ही नोट मिलते हैं जैसे हम दूसरों को देते हैं. कभी-कभी मिलने वाले अच्छे नोट असल में वही होते हैं, जो हम कभी कभार दूसरों को दे देते हैं.

अब अच्छाई को अच्छे साफ-सुथरे नोटों से जोड़ कर देखिए. ऐसे अनेक प्रश्न हल हो जाएंगे. दुनिया वैसी ही बनती जा रही है जैसी हम बना रहे हैं. इसलिए दुनिया में घट रही उन चीजोंं के चक्रव्यूह से दूर रहिए, जिन्हें आप ठीक नहीं समझते. लालच की कोई सीमा नहीं है. भले ही वह किसी भी चीज का क्यों ना हो. यह लालच ही है, जो हमें अच्छाई तक पहुंचने से रोकता है. अगर आप अपने साथ अच्छा होने का सिलसिला बंद नहीं करना चाहते, दूसरों के साथ विनम्रता प्रेम और स्नेह के साथ पेश आने का सिलसिला बंद मत कीजिए. हमेशा याद रखिए, अच्छाई एक बूमरैंग है, उसे आज नहीं तो कल आपके पास ही लौटकर आना है. इसमें वक्त जरूर लगता है, लेकिन इसे टाला नहीं जा सकता.

दयाशंकर मिश्र
ईमेल : dayashankarmishra2015@gmail.com अपने सवाल और सुझाव इनबॉक्‍स में साझा करें:
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Tags: Dayashankar mishra, Dear Zindagi, JEEVAN SAMVAD, Motivational Story