कोरोना वायरस: क्या ग़रीब देशों को मिल पाएगी इसकी वैक्सीन
- फर्नांडो डुटर्टे
- बीबसी वर्ल्ड सर्विस
कोरोना की वैक्सीन विकसित करने के लिए दुनिया भर में रिसर्च चल रही है.
लेकिन, एक डर इस बात का भी है कि जब यह वैक्सीन तैयार हो जाएगी तब क्या गरीब मुल्कों के मरीजों को भी यह मिल पाएगी या नहीं. इन सवालों के जवाब भी ढूंढने होंगे कि क्या अमीर देश इसकी जमाखोरी तो नहीं कर लेंगे. मॉलिक्यूलर जेनेटिसिस्ट केट ब्रॉडरिक कोविड-19 के लिए वैक्सीन विकसित करने के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही है.
दुनिया भर में इस वायरस के लिए वैक्सीन बनाने के लिए 44 प्रोजेक्ट चल रहे हैं. ब्रॉडरिक अमरीका की बायोटेक्नॉलॉजी कंपनी इनोवायो के शोधकर्ताओं की एक टीम में शामिल हैं. इस टीम का मकसद दिसंबर तक इस वैक्सीन की 10 लाख डोज़ तैयार करने का है.
लेकिन, सवाल यह है कि क्या यह वैक्सीन दुनिया के हर देश को मिल पाएगी या नहीं? यह एक ऐसा सवाल है जो कि डॉक्टर ब्रॉडरिक के दिमाग में अक्सर आता है. स्कॉटलैंड की ब्रॉडरिक की एक बहन ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस में बतौर नर्स काम करती हैं.
'इम्यूनाइजेशन गैप'
ब्रॉडरिक ने बीबीसी को बताया, "मेरी बहन इस बीमारी का सामना कर रहे लोगों की मदद करने के लिए हर दिन जूझती है. ऐसे में मुझे जाहिर तौर पर यह चिंता है कि क्या हर किसी को इसकी सप्लाई हो पाएगी या नहीं. हमें हर हाल में यह वैक्सीन बनानी होगी."
इस बात की चिंताएं जाहिर की जा रही हैं कि इनोवायो जैसी कंपनियों के सॉल्यूशंस की जमाख़ोरी अमीर देश कर सकते हैं. एपिडेमियोलॉजिस्ट सेठ बर्कले भी इस 'इम्यूनाइजेशन गैप' के जोखिम से आगाह कर रहे हैं. वह वैक्सीन अलायंस (गावी) के सीईओ हैं.
ये निजी और सरकारी सेक्टर के संस्थानों की एक ग्लोबल हेल्थ पार्टनरशिप है जिसका मकसद दुनिया के 73 सबसे गरीब देशों को इम्यूनाइजेशन की पहुंच मुहैया कराना है. इसके सदस्यों में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) भी शामिल है.
बर्कले ने बीबीसी को बताया, "भले ही अभी वैक्सीन उपलब्ध नहीं है, लेकिन हमें अभी ही इस पर चर्चा शुरू करनी होगी. चुनौती यह सुनिश्चित करने की है कि यह वैक्सी अमीर देशों के जरूरतमंद लोगों के साथ ही गरीब देशों के जरूरतमंद लोगों तक भी पहुंचे. मुझे निश्चित तौर पर चिंता है. कम उपलब्धता वाली चीजों को लेकर खराब व्यवहार अक्सर देखा गया है. हमें अभी से इस पर काम शुरू करना होगा."
हेपेटाइटिस बी की वैक्सीन का मामला
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सेठ बर्कले का डर बेवजह नहीं है. पिछली वैक्सीनों के मामले में ऐसा देखा जा चुका है.
हाल में जर्मन न्यूज़पेपर वेल्ट एम सोंटैग ने वरिष्ठ सरकारी अफ़सरों के हवाले से छापा कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जर्मन बायोटेक्नॉलॉजी कंपनी क्योरवैक की विकसित की जा रही एक वैक्सीन को खासतौर पर अमरीकियों के लिए हासिल करने की कोशिश की, हालांकि वे इसमें नाकाम रहे.
इम्युनाइजेशन गैप का एक बड़ा उदाहरण हेपेटाइटिस बी की वैक्सीन का है. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, हेपेटाइटिस बी का वायरस लिवर कैंसर की वजह बनता है और यह एचआईवी के मुकाबले 50 गुना ज्यादा संक्रमणकारी है. एक अनुमान के मुताबिक, पूरी दुनिया में 25.7 करोड़ लोग 2015 में हेपेटाइटिस बी के मरीज थे.
इस बीमारी के खिलाफ इम्युनाइजेशन अमीर देशों में 1982 में ही शुरू हो गया था, लेकिन 2000 तक भी दुनिया के सबसे गरीब देशों में से 10 फीसदी की भी इस वैक्सीन तक पहुंच नहीं थी. बिल और मेलिंडा गेट्स द्वारा 2000 में गावी की नींव डाली गई. इस संस्थान ने दूसरी वैक्सीन के मामले में इस अंतर को कम करने में अहम भूमिका निभाई है.
दोहरे स्तर वाली पहुंच
इस दिशा में एक और अहम भागीदारी कोइलीशन फॉर एपीडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशंस (केपी) भी है. यह नॉर्वे स्थित एजेंसी है जिसकी नींव 2017 में रखी गई है. इस एजेंसी का मकसद सरकारी और निजी दान के जरिए मिलने वाले पैसे से वैक्सीन डिवेलपमेंट के काम में पैसा लगाना है.
कंपनी ने अपने बयान में कहा है, "हम इस ग्लोबल संक्रामक बीमारी को वैक्सीन के उचित आवंटन के बिना नहीं रोक सकते."
हालांकि, हकीकत अभी भी दो स्तरों के होने की है. एक उदाहरण गार्डासिल का है. यह वैक्सीन 2007 में अमरीकी कंपनी मर्क ने ईजाद की थी ताकि ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) को रोका जा सके. इस वैक्सीन को इस्तेमाल करने की इजाजत अमरीकी अधिकारियों ने 2014 में दे दी.
एचपीवी की वजह से ही सर्वाइकल कैंसर के ज्यादातर मामले देखने को मिलते हैं. लेकिन, 2019 तक यह वैक्सीन केवल 13 गरीब देशों के पास ही पहुंच सकी है. इसका दोषी कौन है? बढ़ती मांग के चलते ग्लोबल लेवल पर कम सप्लाई इसकी वजह है.
कम कमाई वाला कारोबार
गरीब देशों को इस वैक्सीन की सप्लाई ऐसे हालातों में भी नहीं हो पा रही है जबकि सर्वाइकल कैंसर के जरिए होने वाली 85 फीसदी मौतें विकासशील देशों में होती हैं. यह समझने के लिए कि यह शॉर्टेज क्यों होती है, हमें वैक्सीन के धंधे पर नजर डालनी होगी. फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री में रोटी-पानी का इंतजाम वैक्सीन से नहीं होता.
2018 में फार्मास्युटिकल्स का ग्लोबल मार्केट 1.2 लाख करोड़ डॉलर का था. लेकिन, इसमें वैक्सीन की हिस्सेदारी केवल 40 अरब डॉलर की थी. इस अंतर से यह समझ आता है कि क्यों वैक्सीन को विकसित करना इलाज वाली दवाओं के मुकाबले जोखिम भरा होता है.
वैक्सीन विकसित करने में ज्यादा रिसर्च की जरूरत होती है और इस काम पर खर्च भी ज्यादा आता है. दूसरी ओर, वैक्सीन की टेस्टिंग को कहीं कड़े रेगुलेशंस से गुजरना पड़ता है. सरकारी स्वास्थ्य एजेंसियां इन वैक्सीन की सबसे बड़ी ग्राहक होती हैं जो कि निजी ग्राहकों के मुकाबले कहीं कम पैसे में इन्हें खरीदती हैं.
ब्लॉकबस्टर वैक्सीन
इन वजहों से वैक्सीन का धंधा दूसरी दवाइयों के मुकाबले कम फायदेमंद रह जाता है. खासतौर पर ऐसी वैक्सीनों के मामले में यह अंतर और भी बढ़ जाता है जो कि जिंदगी में केवल एक बार इंसानों को दी जाती हैं. अमरीका में 1967 में वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों की संख्या 26 थी जो कि 2004 में घटकर केवल पांच रह गई.
हालांकि, अब बिल और मेलिंडा गेट्स और दूसरे लोगों के सामने से अब इस तस्वीर में बदलाव आ रहा है. इन लोगों ने अरबों डॉलर की फंडिंग इस काम के लिए दी है. इस वजह से इन उत्पादों की मांग में भी इजाफा हुआ है. प्रीवेनार जैसी वैक्सीन के इनोवेशन से इस इंडस्ट्री को काफी फायदा हुआ है.
यह वैक्सीन बच्चों और युवाओं को निमोनिया करने वाले बैक्टीरिया से बचाती है. 2019 में प्रीवेनार पूरी दुनिया की 10 सबसे ज्यादा बिकने वाली दवाओं में थी. साइंटिफिक जर्नल नेचर के मुताबिक, 2019 में इसकी कमाई 5.8 अरब डॉलर रही.
फाइज़र की बनाई इस ब्लॉकबस्टर वैक्सीन ने इसी कंपनी के सबसे मशहूर उत्पाद वायाग्रा की बिक्री को भी पछाड़ दिया. गावी गरीब देशों को प्रीवेनार के सिंगल डोज़ की बिक्री 3 डॉलर से भी कम में रही है, वहीं अमरीका में इसकी एक डोज़ की कीमत 180 डॉलर है.
खुले बाजार की चिंताएं
यूके में एचपीवी के दो-डोज़ के कोर्स की कीमत 351 डॉलर बैठती है. गावी इस वैक्सीन को 5 डॉलर में मुहैया कराती है. ऐसे में अमीर बाजारों में वैक्सीन पर बढ़िया मुनाफा मिलता है. कम से कम यह रिसर्च और डिवेलपमेंट का खर्च करने के लिए अच्छा जरिया है.
एसोसिएशन ऑफ ब्रिटिश फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री के एक अनुमान के मुताबिक, नई वैक्सीन को विकसित करने का खर्च 1.8 अरब डॉलर तक जा सकता है.
लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रोपिकल मेडीसिन के प्रोफ़ेसर मार्क जिट ने बीबीसी को बताया, 'अगर हम इसे खुले बाजार पर छोड़ दें तो केवल अमीर देशों के लोग ही कोविड-19 की वैक्सीन हासिल कर पाएंगे.'
डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के मुताबिक, कम मुनाफे के बावजूद फाइज़र और मर्क जैसी बड़ी दवा कंपनियां पूरी दुनिया में वैक्सीन की 80 फीसदी बिक्री करती हैं. ऐसा हो सकता है कि आखिर में बड़ी कंपनियां कोरोना वायरस की वैक्सीन की बिक्री में एक बड़ी भूमिका निभाएं.
आपसी सहमति
मिसाल के तौर पर, इनोवायो को उत्पादन को करोड़ों डोज़ के लेवल पर पहुंचाने के लिए किसी फार्मा कंपनी के साथ पार्टनरशिप करनी होगी.
यूके की ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन (जीएसके) कोविड-19 वैक्सीन विकसित करने के लिए कई कंपनियों के साथ साझेदारी कर चुकी है.
सीईओ एमा वाल्मस्ले ने एक बयान में कहा है, "कोविड-19 को हराने के लिए हम सबको मिलकर काम करना होगा."
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