कोरोना वायरस के इंसान के शरीर में आने की पहेली

पैंगोलिन

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दुनिया भर में कोरोना वायरस से मरने वालों की संख्या 30 हज़ार के पार पहुंच चुकी है लेकिन अभी तक स्पष्ट तौर पर कोई विशेषज्ञ या वैज्ञानिक ये नहीं बता सके हैं कि कोरोना वायरस आया कहां से.

इसे लेकर कई तरह की मान्यताएं हैं. कुछ लोगों का मानना है कि यह चीन के 'वेट-मार्केट' से आया. चीन में कई जंगली जानवरों का इस्तेमाल खाने और दवाइयों के लिए किया जाता है. कोरोना वायरस वहीं से इंसानों में आया.

उस वक़्त तक चमगादड़ को कोरोना वायरस का मूल स्रोत माना जा रहा था. दलील दी जा रही थी कि चीन के वुहान शहर में 'जानवरों की मंडी' से ये वायरस कुछ इंसानों में पहुंचा और उसके बाद पूरी दुनिया में फैल गया.

चमगादड़

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इसके बाद एक शोध में कहा गया कि इंसानों में यह वायरस पैंगोलिन से आया है. इसे लेकर एक शोध भी हुआ.

इस शोध में कहा गया कि पैंगोलिन में ऐसे वायरस मिले हैं जो कोरोना वायरस से मेल खाते हैं.

लेकिन ये शोध भी अभी शुरुआती चरण में है. शोधकर्ताओं ने सलाह दी है कि पैंगोलिन पर अतिरिक्त नज़र रखे जाने की ज़रूरत है ताकि कोरोना वायरस के उभरने में उनकी भूमिका और भविष्य में इसांनों में उनके संक्रमण के ख़तरे के बारे में पता लगाने के बारे में समझ बनाई जा सके.

अब जबकि पूरी दुनिया में कोरोना वायरस फैल चुका है तो कुछ लोग इसे 'चीन का ईजाद किया जैविक आक्रमण' भी बता रहे हैं.

चीन का पॉल्ट्री फार्म

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अमरीकी राष्ट्रपति ने कई मौक़ों पर कोरोना वायरस को चीनी वायरस या वुहान वायरस कहा है. इस 'कॉन्सपिरेसी-थ्योरी' को हाल के दिनों में और बल मिला है क्योंकि एक ओर जहा दुनिया के ज़्यादातर देश लॉकडाउन में हैं वहीं दो महीने से अलग-थलग पड़ा वुहान अब अपने यहां प्रतिबंधों को हटा रहा है.

सोशल मीडिया पर तो यहां तक कहा जा रहा है कि मौजूदा समय में चीन का वुहान शहर ही सबसे सुरक्षित जगह है जबकि क़रीब तीन महीने पहले यहीं से कोरोना वायरस का जन्म हुआ था.

लेकिन इस 'कॉन्सपिरेसी-थ्योरी' को भी चुनौती दी गई है.

कैलिफ़ोर्निया में जेनेटिक सिक्वेंसेस को लेकर हुए एक शोध में इस बात की संभावना से इनक़ार किया गया है कि इसे प्रयोगशाला में तैयार किया जा सकता था या फिर जेनेटिक इंजीनियरिंग से. इस शोध के साथ ही चीन को लेकर जो 'कॉन्सपिरेसी-थ्योरी' चल रही था उसे भी चुनौती मिलती है.

कोरोना वायरस के बारे में जो एक बात स्पष्ट है वो ये कि यह क्रमिक विकास का नतीजा है.

ऐसे में यह तर्क कहीं अधिक मालूम पड़ता है कि कोरोना वायरस इंसानों में जानवरों से आया.

वैज्ञानिक जो तर्क दे रहे हैं उनके अनुसार, संक्रमित जानवर इंसान के संपर्क में आया और एक व्यक्ति में उससे वो बीमारी आ गई. इसके बाद वाइल्ड लाइफ़ मार्केट के कामगारों में यह फैलने लगी और इसी से वैश्विक संक्रमण का जन्म हुआ.

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वैज्ञानिक इस कहानी को साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि कोरोना वायरस जानवरों से फैला. ज़ूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन के प्रोफ़ेसर एंड्र्यू कनिंगम कहते हैं कि घटनाओं की कड़ी जोड़ी जा रही है.

लेकिन सवाल यह है कि हमलोग इसके संक्रमण या फैलने के बारे में कितना जानते हैं? जब वैज्ञानिक नए वायरस को मरीज़ के शरीर में समझ पाएंगे तो चीन के चमगादड़ों या पैंगोलिन को लेकर स्थिति साफ़ हो पाएगी.

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लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि जानवर किसी इंसान को बीमार कैसे कर सकते हैं?

अगर बीते 50 सालों के आंकड़े देखें तो जानवरों से इंसानों में संक्रमण के मामले बढ़े हैं.

साल 1980 के समय में बड़े वनमानुषों से आया एचआईवी/एड्स संकट, साल 2004-07 में पक्षियों से होना वाला बर्ड फ़्लू और उसके बाद साल 2009 में सूअरों से होने वाला स्वाइन फ़्लू. जानवरों से आए इन सभी संक्रमणों ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया.

लेकिन अगर हाल के सालों की बात करें तो 'सार्स' सबसे ख़तरनाक संक्रमण के तौर पर सामने आया है. सिवियर अक्यूट रेस्पाइरेटरी सिंड्रोम यानी सार्स चमगादड़ों से होता है. सिवेट्स से भी. लेकिन अगर चमगादड़ की बात करें तो इबोला संकट को भी भुलाया नहीं जा सकता.

जानवरों से इंसानों को संक्रमण होना कोई नई बात नहीं है. अगर ग़ौर करें तो ज़्याादातर जो नए संक्रमण सामने आए हैं वो वन्य-जीवों से ही इंसानों में फैल हैं.

लेकिन पर्यावरण में हो रहा लगातार और तेज़ परिवर्तन इस संक्रमण की दर को बढ़ा रहा है. हर रोज़ बढ़ते और बदलते शहर और अंतरराष्ट्रीय यात्राएं संक्रमण को बढ़ाने का कारण बन रही हैं. इसकी वजह से संक्रमण की दर कहीं तेज़ हुई है.

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लेकिन एक प्रजाति की बीमारी किसी दूसरी प्रजाति में कैसे पहुंच जाती है?

अधिकांश जानवरों में रोगाणुओं की एक कड़ी होती है. उनके शरीर में मौजूद वायरस और बैक्टीरिया बीमारियों के कारण बनते हैं.

इन रोगाणुओं का क्रमिक विकास और जीवित रहने की क्षमता उनके नए होस्ट (जानवरों से ये जिस भी जीवधारी में जाते हैं) पर निर्भर करता है. एक होस्ट से दूसरे होस्ट में जाना इस क्रमिक विकास का ही एक तरीक़ा है.

जब ये रोगाणु किसी नए होस्ट के शरीर में प्रवेश करते हैं तो उस नए होस्ट की रोग-प्रतिरक्षा प्रणाली उसे मारकर बाहर करने की कोशिश करती है. इसका सीधा सा मतलब ये हुआ कि एक रोगाणु के शरीर में प्रवेश करने के साथ ही होस्ट के शरीर में एक 'इवोल्युशनरी-गेम' शुरू हो जाता है. इस खेल में होस्ट और रोगाणु के बीच एक-दूसरे पर काबू करने की कोशिश होती है.

उदाहरण के तौर पर, जब साल 2003 में सार्स महामारी फैली थी तो संक्रमित हुए क़रीब 10 फ़ीसदी लोगों की मौत हो गई थी. इसकी तुलना में 'परंपरागत' फ़्लू महामारी से 0.1 प्रतिशत से भी कम मौतें दर्ज की गई थीं.

तेज़ी से बदल रहे पर्यावरण ने जानवरों के निवास को या तो छीन लिया है या फिर बदल दिया है. इसकी वजह से उनके रहने का तरीक़ा बदल चुका है. खाने और जीने का ढंग भी. लेकिन यह बदलाव सिर्फ़ जानवरों तक ही सीमित नहीं है.

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इंसानों के रहने के तरीक़े में भी बहुत बदलाव हुआ है. दुनिया की क़रीब 55 फ़ीसदी आबादी शहरों में रहती है. जो कि बीते 50 साल में 35 फ़ीसदी बढ़ी है.

इन तेज़ी से बढ़ते शहरों ने वन्य जीवों को नया घर प्रदान किया है. चूहे, चूहे रकून, गिलहरी, लोमड़ी, पक्षी, गीदड़, बंदर जैसे जीव अब इंसानों के साथ हरी जगहों जैसे पार्क और बगीचों में नज़र आते हैं. उनके खाने-पीने का इंतज़ाम इंसानों द्वारा छोड़े गए या फेंके गए खाने से हो जाता है.

कई ऐसे उदाहरण हैं जिसमें ये वन्य जीव जंगलों की तुलना में शहरों में ज़्यादा सफल जीवन जीने में कामयाब रहे हैं. इसका एक बड़ा कारण ये है कि शहरों में इन्हें आसानी से खाना मिल जाता है. लेकिन ये ही वो कारक भी हैं जो बीमारियों को जन्म देने का काम करते हैं.

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लेकिन सबसे अधिक ख़तरा किसे है?

जब कोई रोगाणु किसी नए होस्ट के शरीर में प्रवेश करता है तो वो ज़्यादा ख़तरनाक साबित हो सकता है और यही वजह है कि जब कोई बीमारी शुरुआती चरण में होती है तो वो ज़्यादा घातक होती है.

कई समुदाय ऐसे होते हैं जो किसी दूसरे समुदाय या प्रजाति की तुलना में कहीं जल्दी इनकी चपेट में आ जाते हैं.

शहरों में रहने वाले ग़रीब तबके के वो लोग जो अधिकतर साफ़-सफ़ाई के काम में लगे होते हैं, उनके संक्रमित होने की आशंका किसी और की तुलना में कहीं अधिक होती है.

इसके अलावा उनकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी कमज़ोर होती है क्योंकि उनके खाने में पौष्टिक तत्वों की कमी होती है. इसके अलावा साफ़-सफ़ाई की कमी, दूषित वायु और जल भी एक बड़ा कारण होता है और सबसे दुखद ये है कि ग़रीबी के कारण ये तबका इलाज का ख़र्च भी नहीं उठा पाता.

बड़े शहरों में संक्रमण के फैलने की आशंका भी अधिक होती है. शहरों में घनी जनसंख्या होती है. साफ़ हवा की कमी होती है. ऐसे में लोग वही हवा सांस में लेते और उन्हीं-उन्हीं जगहों से गुज़रते हैं जो शायद किसी संक्रमित शख़्स से दुषित हुई होती है.

दुनिया के कई हिस्सों में लोग अर्बन-वाइल्ड लाइफ़ का इस्तेमाल खाने के लिए भी करते हैं. वो शहरों में ही पल रहे जीवों का या तो शिकार करते है या फिर आसपास के इलाक़ों से पकड़कर लाए गए और सूखाकर फ्ऱीज़ किए गए जानवरों को खाते हैं.

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बीमारियां हमारे व्यवहार को कैसे बदल रही हैं?

अगर बात कोरोना वायरस की करें तो इसकी वजह से ज़्यादातर देशों ने अपनी सीमाओं को बंद कर दिया है. हवाई यात्राओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. लोग एक-दूसरे से बात करने, संपर्क में आने से बच रहे हैं क्योंकि डर है कि संक्रमित ना हो जाएं.

यह अपने आप में डराने वाला अनुभव है.

साल 2003 में सार्स महामारी की वजह से ग्लोबल इकोनॉमी पर छह महीने के लिए 40 अरब डॉलर का भार आ गया था. इस लागत का एक बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने में गया था. इसके साथ ही लोगों की आवाजाही बंद थी और आर्थिक स्तर पर घाटा हुआ था.

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हम क्या कर सकते हैं?

समाज और देशों की सरकारें प्रत्येक नए संक्रामक रोग का इलाज एक स्वतंत्र संकट के रूप में करती हैं, बजाय इसके कि वो यह पहचानें कि दुनिया कैसे बदल रही है.

जितना अधिक हम अपने पर्यावरण को बदलेंगे उतना ही अधिक हम धरती के पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुंचाएंगे. जिससे बीमारियों की आशंका भी बढ़ेगी.

अभी तक दुनिया के सिर्फ़ 10 फ़ीसदी रोगाणुओं को डाक्युमेंटेड किया गया है. इसलिए दूसरे रोगाणुओं को पहचानने और उनके स्रोत की पहचान करने के लिए बहुत से संशाधनों की आवश्यकता है.

अगर उदाहरण की बाते करें तो यह जांच की जानी चाहिए कि लंदन में कितने चूहे हैं और वे किन-किन बीमारियों के घर हैं.

इसका एक दूसरा पक्ष भी है.

कई शहरवासी शहरी वन्य जीवन को महत्व देते हैं लेकिन इस बात की पहचान होना ज़रूरी है कि कुछ जानवर इसका संभावित नुक़सान भी उठाते हैं.

इसके साथ ही इस बात पर भी ग़ौर किया जाना चाहिए कि क्या कोई जंगली जानवर नया-नया शहर में नज़र आ रहा है? लोग किन वन्यजीवों को मारकर खा रहे हैं या फिर बाज़ारों में कौन से जानवर बेचे जा रहे हैं.

सफ़ाई की आदतों को बढ़ाकर, कचरे का सही निवारण और पेस्ट कंट्रोल की मदद से इन महामारियों को नियंत्रित किया जा सकता है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण ये है कि हम अपने वातावरण को बदल रहे हैं और इंसान अपनी ज़रूरतों को बढ़ाता जा रहा है.

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भविष्य में भी होगी महामारी

जिस तरह से साल दर साल नए रोग सामने आ रहे हैं और महामारी का रूप ले रहे हैं, ये हमें आने वाले समय के लिए मज़बूत भी बना रहे हैं. और इस बात से इनक़ार नहीं किया जा सकता है कि महामारी आगे आने वाले सालों में भी देखने को मिलेगी.

क़रीब सौ साल पहले स्पैनिश फ़्लू ने दुनिया की एक तिहाई आबादी प्रभावित हुई थी और क़रीब पांच से दस करोड़ लोगों की मौत हो गई थी.

वैज्ञानिक तरीक़ों को ईजाद करके और वैश्विक स्वास्थ में निवेश करके भविष्य में अगर ऐसा कुछ दोबारा होता है तो उसे और बेहतर तरीक़े से संभाला जा सकता है.

हालांकि, जोखिम उस समय और विनाशकारी होता है जब वैसा ही कुछ दोबारा होने वाला हो जो पहले हो चुका हो. ये दुनिया को पलट कर रख देने वाला होता है.

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