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महामारी के दौर में लोगों की उम्मीद है कि हम हर अन्याय के खिलाफ उठाएंगे आवाज

4 वर्ष पहलेलेखक: शेखर गुप्ता
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अ गर आप गैब्रिएल गार्सिया मार्केज की किताब से इस लेख का शीर्षक चुराना चाहते हैं तो आपको थोड़ा उतावला, ढीठ और थोड़ा दिलचस्प होना पड़ेगा। सच यह है कि हम पत्रकार सामान्य तौर पर ये तीनों ही होते हैं। अगर हमें इन कमियों के लिए माफ कर दिया जाए, तो भी यह इसलिए होता है, क्योंकि लोग जानते हैं कि हम कहां से आते हैं। पत्रकारिता के कई दशकों में कभी ऐसा नहीं हुआ कि मेरे साथ किसी ने कोई अभद्रता की हो। कई बार तो अपने उद्देश्य के लिए संघर्ष कर रहे उग्र लोग, आपके साथ खाना साझा करते हैं और आपको सुरक्षा भी देते हैं। अपवाद अलग हैं। ऐसा क्यों होता है? इस विविधतापूर्ण देश के एक अरब से अधिक लोगों को किसने बताया कि पत्रकार उनके लिए महत्वपूर्ण हैं? यदि आप चुनाव प्रचार के दौरान सफर करें तो आप चौंक जाएंगे कि लोग पत्रकारों का भी कितना स्वागत करते हैं। ग्रामीण महिलाएं भी पत्रकारों से खुलकर बात करती हैं। यह जनता और पत्रकारों के बीच का विशेष सामाजिक अनुबंध है। इसकी बुनियाद उस मान्यता पर है कि हम अपना काम बहुत मेहनत और बहादुरी से करते हैं। इसलिए जब कई बार जब पुलिस या प्रशासन पीड़ितों की नहीं सुनता है तो वे सबसे पहले मीडिया को कॉल करते हैं। आज जब हम कोरोना वायरस के खतरे के रूप में अपने दौर की सबसे बड़ी खबर कर रहे हैं, तब भी उनकी हमसे यही अपेक्षा है। हम पत्रकारों की ऐसी परीक्षा कभी नहीं हुई। आने वाली पीढ़ियां हमें इस कसौटी पर कसेंगी। प्रथम विश्वयुद्ध की भर्ती के पोस्टर को याद करें, जिसमें कहा गया था: डैडी, आपने महायुद्ध में क्या किया? हमारे लिए यह उसी तरह का मौका है। यह खतरनाक वैश्विक महामारी है। पिछले गुरुवार को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने एक अहम बात कही कि आज कोई देश दूसरे की मदद करने की स्थिति में नहीं है। भारत में हम पत्रकारों को एक और तोहफा हासिल है और वह है सम्मान और स्वतंत्रता। हमें यह याद रखना होगा कि हमने जिस सामाजिक अनुबंध की बात की, वह कहां से आता है। प्रेस की स्वतंत्रता किसी कानून या संविधान में शायद ही हो। संविधान का अनुच्छेद 19 देश के हर नागरिक पर समान रूप से लागू होता है और पत्रकारों को कोई विशेष अधिकार नहीं देता। इंदिरा गांधी के आपातकाल तक हम स्वतंत्रता को हल्के में लेते रहे। जब आपातकाल में स्वतंत्रता छिन गई तो कोई राह नहीं बची। उस वक्त लोगों को अहसास हुआ कि इंदिरा गांधी ने उनसे स्वतंत्र प्रेस भी छीन ली है। यह सामाजिक अनुबंध वहीं से पैदा हुआ। यह पत्रकारिता के प्रथम संशोधन के समान है। यदि वे हमारी आजादी काे इतना महत्व और संरक्षण देते हैं तो वे यह निर्णय भी करेंगे कि हम उनके लिए सही हैं या नहीं।   जब मेरे साथी पत्रकार चिंता व्यक्त करते हैं तो मैं उन्हें सुनता हूं। समझदार आदमी पूरी तरह भयमुक्त नहीं होता। कहावत है कि जान है तो जहान है। किसी को भी हड़बड़ाने की जरूरत नहीं है। कोई भी अपने साथी पत्रकारों को अवांछित जोखिम में डालना नहीं चाहेगा, लेकिन हम पत्रकार हैं। हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी खबर चल रही है, एक अरब से अधिक लोग बेहद डरे हुए और हमसे कम सुरक्षित हैं। वे हमें नजर रखते हुए, खबर, संपादन व रिकॉर्डिंग करते हुए और शासन की नाकामी की ओर ध्यान दिलाते देखते हुए, उम्मीद करते हैं कि हम आसपास हों। कोरोना वायरस जैसी आपदा के वक्त हम पत्रकारों का यह दायित्व है कि हम न्याय और इतिहास को लेकर सबसे पहले प्रतिक्रिया दें। यदि हम ऐसा नहीं कर सके तो हम शायद खुद को पत्रकार कहना ही बंद कर दें। हो सकता है कि हममें से कुछ लोग इसमें नाकाम रहें, लेकिन हर कोई असफल नहीं होगा। हममें से ही कुछ लोग चमकते हुए सामने आएंगे। मेरा हमेशा मानना रहा है कि हर चीज बाद में उतनी बुरी नहीं निकलती, जितनी कि वह शुरुआत में लगती है। मैं कहूंगा कि हम सभी इससे बच जाएंगे और हमारे पास ऐसी कहानियां होंगी, जिन्हें हम आगे लोगों को सुना सकेंगे। हम पत्रकार तिलचट्टों की तरह हर स्थिति में जिंदा रह लेते हैं।  

न्यूज रूम में मुझसे एक प्रश्न किया गया। क्या होगा अगर हममें से कुछ लोग खबर करते हुए मर जाएं तो? उत्तर एकदम आसान है। अगर एकदम विपरीत परिस्थितियों में यह होता भी है तो भी कुछ पत्रकार खबर करने के लिए होंगे। पत्रकारिता अपना काम करेगी। अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने दो बार मीडिया का जिक्र अनिवार्य सेवाओं के रूप में किया, चिकित्सकों, अस्पतालकर्मियों, पुलिस और सरकारी अधिकारियों की तर्ज पर। साफ कहें तो इसे अनिवार्य सेवाओं के रूप में उल्लेखित किया जाना सुखद बदलाव है। हमें यह यकीन होना चाहिए कि हम महत्वपूर्ण हैं और एक अनिवार्य सेवा देते हैं। सत्ता के साथ हमेशा हमारे मतभेद रहते हैं और रहेंगे, लेकिन ऐसा तो हर लोकतंत्र में होता है। परंतु मौजूदा संकट जैसे दौर में हमें उन चिंताओं को दूर कर देना चाहिए। इसलिए कमर की पेटी बांध लें। कोरोना के दौर में पत्रकारिता एक ऐसी कहानी है, जो पहले कभी नहीं थी। (यह लेखक के अपने विचार हैं।)

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