कोरोना वायरस: एक लड़ाई जो पर्दे के पीछे लड़ी जा रही है
- जोनाथन मार्कस
- कूटनीतिक संवाददाता
वैश्विक महामारी के वक्त में एक जंग चीन और अमरीका के बीच छिड़ गई है. इस जंग में दोनों देशों का बहुत कुछ दांव पर है.
चीन वैश्विक लीडर बनने की कोशिश में है जबकि अमरीका 'दुनिया के दरोगा' की हैसियत को गंवाता दिख रहा है.
पूरी दुनिया के लिए निश्चित तौर पर यह एक अच्छा वक्त नहीं है. अमरीका और चीन के आपसी रिश्ते भी ठीक नहीं हैं.
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार कोरोना वायरस को 'चाइनीज वायरस' कह रहे हैं.
उनके आक्रामक विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने इसे 'वुहान वायरस' कहा है. अमरीका के इस तरह के नामकरण से ज़ाहिर है बीजिंग बिल्कुल खुश नहीं है.
अमरीका के राष्ट्रपति और विदेश मंत्री दोनों ने कोरोना वायरस को इसकी शुरुआत के वक्त ही काबू नहीं करने के लिए चीन की आलोचना की है.
लेकिन, चीन के प्रवक्ता उन सभी आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हैं कि उनका देश कोरोना को लेकर दुनिया के सामने तस्वीर साफ़ करने से बचता रहा.
दूसरी ओर, चीन में सोशल मीडिया में इस तरह की कहानियां आ रही हैं कि यह महामारी अमरीकी मिलिटरी जर्म वॉरफेयर प्रोग्राम के ज़रिए फैली. यह अफ़वाह तेजी से आगे बढ़ रही है. वैज्ञानिकों ने इस चीज का प्रदर्शन किया है कि इस वायरस का स्ट्रक्चर अपने मूल रूप में पूरी तरह से प्राकृतिक है.
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अमरीका के गलत फ़ैसले और चीन की सूझबूझ
चीन और अमरीका के बीच जारी यह जंग केवल बयानों तक सीमित नहीं है. कुछ बेहद अहम चीजें इस दौरान घट रही हैं.
इस महीने की शुरुआत में जब अमरीका ने ऐलान किया कि वह इटली समेत दूसरे कई यूरोपीय देशों के यात्रियों के लिए अपने यहां की सीमाएं बंद कर रहा है तो चीन की सरकार ने ऐलान किया कि वह इटली में अपनी मेडिकल टीमें और सप्लाई भेज रहा है. इटली इस वक्त कोरोना वायरस की सबसे भयंकर मार से जूझ रहा है. चीन ने ईरान और सर्बिया को भी मेडिकल सप्लाई भेजी है.
यह दुनिया को दिखाने के लिहाज से एक बड़ी चीज थी. साथ ही इससे यह भी दिखाई दिया कि किस तरह से इन दोनों देशों के बीच पर्दे के पीछे एक बड़ी जंग शुरू हो चुकी है.
चीन इस मुश्किल के वक्त में दुनिया में एक लीडर के तौर पर खुद को उभारने की कोशिश कर रहा है. हक़ीक़त यह है कि फिलहाल ऐसा लग रहा है कि अमरीका इस जंग में चीन के मुकाबले पिछड़ रहा है.
इस जंग में एक छोटी मोबाइल यूएस एयरफ़ोर्स मेडिकल सुविधाओं को देरी से इटली भेजे जाने को शायद ही किसी ने नोटिस किया हो.
यह इतिहास में ऐसा पहला मौका है जबकि दुनियाभर में देशों की प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं की काबिलियत की इस तरह जांच हो रही है. कोरोना के खिलाफ इस जंग में लीडरशिप ही सबकुछ है.
मौजूदा राजनीतिक नेताओं को इस आधार पर आंका जाएगा कि इस संकट की घड़ी में उन्होंने कैसे काम किया और कितने प्रभावी तरीक़े से इसे काबू किया.
यह देखा जाएगा कि इन नेताओं ने किस तरह से अपने देश के संसाधनों का इस्तेमाल कर इस महामारी को रोका.
ग्लोबल इकोनॉमी में चीन का होगा दबदबा!
यह महामारी ऐसे वक्त पर फैली है जब अमरीका और चीन के रिश्ते पहले से ही एक बुरे दौर से गुज़र रहे थे.
आंशिक रूप से हुई एक ट्रेड डील दोनों देशों के बीच चल रहे कारोबारी तनाव को कुछ कम करने में शायद ही कामयाब हुई है.
चीन और अमरीका दोनों एक बार फिर से हथियारों की होड़ में जुट गए हैं. दोनों देश भविष्य में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में किसी टकराव के लिए खुद को तैयार करने में जुटे हैं.
चीन कम से कम इस क्षेत्र में खुद को एक सैन्य सुपरपावर साबित करने में सफल रहा है. और अब चीन को लगता है कि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में एक बड़ी भूमिका निभाने का उसका वक्त आ गया है.
इस माहौल में यूएस-चीन के रिश्ते कहीं ज्यादा जटिल हो गए हैं. इस संकट के वक्त में इस महामारी से निबटने और इससे निबटने के बाद की दुनिया के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण होगा.
जब इस वायरस पर जीत हासिल कर ली जाएगी तब चीन का आर्थिक रूप से दोबारा उभार एक बिखरी हुई ग्लोबल इकनॉमी को फिर से खड़ा करने में अहम साबित होगा.
चीन की मदद लेना ज़रूरी
फिलहाल, चीन की मदद कोरोना वायरस से लड़ने के लिए बेहद ज़रूरी है. मेडिकल डेटा और अनुभवों को लगातार साझा किए जाने की ज़रूरत है.
चीन मेडिकल इक्विपमेंट और मास्क और प्रोटेक्टिव सूट्स जैसे डिस्पोजेबल आइटम का एक बड़ा मैन्युफैक्चरर है. संक्रमित मरीज़ों का इलाज करने वाली टीमों और इस वायरस से निबटने में काम करने वाले दूसरे लोगों के लिए ये चीजें अहम हैं. बड़े पैमाने पर दुनिया को इन चीजों की सप्लाई की जरूरत है.
कई लिहाज़ से चीन दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग वर्कशॉप है. चीन के अलावा कुछ ही देशों के पास ऐसी ताकत है कि वे अपने यहां उत्पादन को रातों-रात कई गुना बढ़ा सकें.
चीन इस मौके को भुना रहा है. दूसरी ओर, राष्ट्रपति ट्रंप के आलोचकों का कहना है कि वे इस मौके पर चूक गए हैं.
ट्रंप प्रशासन शुरुआत में इस संकट की गंभीरता को पहचानने में नाकाम रहा. वह 'अमरीका सबसे पहले' के नारे को आगे बढ़ाने के एक और मौके के तौर पर इसका इस्तेमाल नहीं कर पाया.
कौन बनेगा ग्लोबल लीडर?
अब दांव पर ज्यादा बड़ी चीज लगी है और वह है - ग्लोबल लीडरशिप.
एशिया मामलों के दो एक्सपर्ट, कर्ट एम कैंपबेल जो कि ओबामा प्रशासन के वक्त पूर्वी एशिया और प्रशांत मामलों के विदेश उपमंत्री रहे, और रश दोषी ने फॉरेन अफेयर्स में अपने हालिया आर्टिकल में लिखा है, 'गुज़रे सात दशकों में एक ग्लोबल पावर के तौर पर अमरीका का दर्जा केवल पूंजी और ताकत पर खड़ा नहीं हुआ, बल्कि यह अमरीका के घरेलू गवर्नेंस की वैधानिकता, दुनियाभर में सार्वजनिक चीजों के प्रावधानों, और संकट के वक्त तेजी से काम करने और सहयोग करने की इच्छा के आधार पर भी आधारित था.'
इनका कहना है कि कोरोना वायरस की महामारी, 'अमरीकी लीडरशिप के इन तीनों तत्वों को परख रही है. अब तक वॉशिंगटन इस टेस्ट में नाकाम रहा है. दूसरी ओर, जब वाशिंगटन फिसल रहा है, बीजिंग तेजी से इस मौके और अमरीकी गलतियों का फायदा उठा रहा है. महामारी के वक्त रेस्पॉन्स में बनी रिक्त स्थिति में वह खुद को ग्लोबल लीडर साबित करना चाहता है.'
प्रोपेगैंडा वॉर में आगे निकला चीन
मौका परस्त होना आसान है. कई लोग शायद यह सोचकर आश्चर्यचकित हो रहे होंगे कि ऐसे ख़राब वक्त में चीन अपने फ़ायदे की कैसे सोच सकता है. कैंपबेल और दोषी इसे 'चुत्पा' की संज्ञा देते हैं, क्योंकि चीन में ही इस वायरस की शुरुआत दिखाई दे रही है. वुहान में विकसित हुए इस संकट में बीजिंग का शुरुआती रेस्पॉन्स गोपनीय तरीके का था. हालांकि, उसके बाद से चीन ने अपने विशाल संसाधनों को असरदार और प्रभावित करने वाले तरीके से इसमें झोंक दिया.
प्रेस फ्रीडम ऑर्गनाइजेशन पीईएन अमरीका की सीईओ सुज़ेन नोसेल ने फॉरेन पॉलिसी वेबसाइट पर एक आर्टिकल में लिखा है, 'चीन को इस बात का डर था कि शुरुआती तौर पर इस संकट को नकारने और कुप्रबंधन से सामाजिक अव्यवस्था और आक्रोश पैदा हो सकता है. ऐसे में बीजिंग ने अब बड़े पैमाने पर आक्रामक तरीके से घरेलू और ग्लोबल प्रोपेगैंडा कैंपेन शुरू दिया. इस जरिए से चीन ने बीमारी को लेकर अपनी सख्त अप्रोच को छिपाने, ग्लोबल लेवल पर इस बीमारी के फैलने में अपनी भूमिका को दबाने, और पश्चिमी देशों और खासतौर पर अमरीका के ख़िलाफ़ अपनी एक बढ़िया इमेज गढ़नी शुरू कर दी.'
क्या वैश्विक समीकरण बदलेंगे?
कई पश्चिमी टिप्पणीकार चीन को एक ज्यादा तानाशाही वाला और ज्यादा राष्ट्रवादी देश बनता देख रहे हैं. इन्हें डर है कि महामारी के असर से ये ट्रेंड और तेजी से बढ़ सकते हैं. लेकिन, वॉशिंगटन के ग्लोबल लीडर के दर्जे पर इस महामारी का असर कहीं ज्यादा हो सकता है.
अमरीका के सहयोगी इस पर नजर रखे हैं. वे खुलेआम भले ही ट्रंप प्रशासन की आलोचना नहीं कर रहे हैं, लेकिन इनमें से कई चीन के साथ अमरीका के व्यवहार को लेकर स्पष्ट तौर पर पसंद नहीं करते हैं. इनमें चाइनीज टेक्नोलॉजी (हुआवेई विवाद) और ईरान और दूसरे क्षेत्रीय मसले शामिल हैं.
चीन इस महामारी के वक्त अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर रहा है. वह भविष्य के रिश्तों के लिए नए मानक तय कर रहा है. इनमें से एक शायद यह होगा कि चीन तेजी से दुनिया के लिए एक आवश्यक ताकत बन गया है.
कोरोना वायरस से लड़ाई के दौरान अपने पड़ोसियों- जापान और दक्षिण कोरिया के साथ होने वाले गठजोड़ और यूरोपीय यूनियन को हेल्थ इक्विपमेंट्स भेजने को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है.
क्या अमरीका के लिए यह 'स्वेज़ मोमेंट' साबित होगा?
कैंपबेल और दोषी ने अपने फॉरेन अफेयर्स को लिखे आर्टिकल में इसकी तुलना ब्रिटेन के पतन से की है. उन्होंने कहा है कि स्वेज़ कैनाल पर कब्जे की 1956 में ब्रिटेन की नाकाम कोशिश ब्रिटेन की ताकत के खत्म होने का अहम पड़ाव थी और इसने युनाइटेड किंगडम का एक ग्लोबल पावर के तौर पर दर्जा ख़त्म कर दिया.
वे लिखते हैं, "आज अमरीकी सरकार को समझना चाहिए कि अगर अमरीका इस वक्त की जरूरत को पूरा करने में नाकाम रहता है तो कोरोना वायरस अमरीका के लिए एक स्वेज़ की घटना साबित हो सकती है.'
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