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Madhya pradesh political crisis, Why does Scindia see BJP as a safe field
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सिंधिया को भाजपा ही सुरक्षित ठिकाना क्यों नजर आता है?
कुछ साल पहले कांग्रेस की यूथ ब्रिगेड की देशभर में खासी चर्चा थी। राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा से लेकर तमाम युवा चेहरों के पार्टी में बढ़ते दबदबे के बीच एक नई कांग्रेस की रूपरेखा बनाए जाने की बात कही जा रही थी, यहां तक कि भाजपा में भी इस युवा नेतृत्व को एक चुनौती की तरह देखा जाने लगा था।
लेकिन कुछ ही सालों में यह यूथ ब्रिगेड अपनी ही आंधी में बह गई। 2014 चुनाव से पहले राहुल गांधी और उनकी यूथ ब्रिगेड खूब सक्रिय रही, गांव गांव घूमी, जमीनी राजनीति और जनता के सवालों पर धुआंधार प्रचार किया, लेकिन चुनावी नतीजों ने कांग्रेस की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।
अगले पांच साल इसी उधेड़बुन में निकल गए कि मोदी की आंधी और भगवा लहर को कैसे रोकें। अमित शाह की चाणक्य नीति से कैसे लड़ें। राहुल गांधी यूथ ब्रिगेड के नेता बने रहे, लेकिन उनके बाकी सिपहसालार धीरे धीरे दरकिनार होते रहे।
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1885 में बनी पार्टी अपने गौरवशाली इतिहास को लेकर, आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका को लेकर और देश पर सबसे लंबे समय तक राज करने को लेकर लगातार चर्चा में रही। अंतर्विरोधों से भरी रही, उतार चढ़ाव के बीच सत्ता की सांप सीढ़ी का खेल खेलती रही।
लेकिन पिछले छह सालों में भाजपा के वर्चस्व के आगे लगातार छटपटाती भी दिखी। जिस यूथ ब्रिगेड ने उम्मीद जगाई थी कि अब कोई नई कांग्रेस नजर आएगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। राहुल गांधी जिस जोश के साथ आए थे, उससे ज्यादा बौखलाहट के साथ 2019 के बाद मैदान छोड़कर किनारे हो गए।
जाहिर है आज मध्यप्रदेश में जो कुछ हो रहा है, वह कोई अचानक नहीं है। सिंधिया राजघराने के तार शुरु से ही कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ जुड़े रहे हैं। माधवराव सिंधिया और राजीव गांधी की दोस्ती की वजह से कांग्रेस के साथ इस परिवार को जो रिश्ता रहा, वही विरासत ज्योतिरादित्य 18 सालों तक ढोते आए।
लेकिन एक राज परिवार और सत्ता का मजबूत दावेदार आखिर कबतक हाशिये पर रह सकता है। कांग्रेस के पुराने नेताओं और उनके काम करने के तरीके ने इस यूथ ब्रिगेड को हमेशा बच्चा ही समझा और इनका दबदबा उन्हें मंजूर नहीं हुआ। पार्टी के भीतर ही भीतर गांधी परिवार का नाम ले लेकर खेल चलते रहे और अध्यक्ष को लेकर ही खींचतान चलती रही।
दरअसल सोनिया गांधी अकेले अपने परिवार की विरासत को संभालते संभालते और अपने बच्चों को चौतरफा हमलों से बचाते बचाते पार्टी के भीतर ही मजबूर और कमजोर हो गईं। उनकी मजबूरी का फायदा वही पुराने और तथाकथित रणनीतिकार उठाते रहे जिनकी वजह से कांग्रेस की आज यह हालत हो गई है।
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ज्योतिरादित्य सिंधिया सिर्फ ग्वालियर राजघराने के शहंशाह नहीं हैं। उस परिवार की मध्यप्रदेश में आज भी अपनी एक मजबूत जगह है, बेइंतहां इज्जत है। अगर कमलनाथ सरकार के कुछ मंत्री और विधायक सिंधिया के साथ हैं, तो इसके पीछे सिर्फ सत्ता नहीं है, सिंधिया परिवार का सम्मान है।
साथ ही कांग्रेस की अंदरूनी हालत और भविष्य की अनिश्चितता को लेकर बेचैनी है। सोनिया गांधी को भेजे गए सिंधिया के इस्तीफे की भाषा बेहद संतुलित और सधी हुई है और बेशक उसमें एक युवा नेता के भीतर की वह बेचैनी भी झलकती है जो उसके राजनीतिक करियर के लिए जरूरी है।
कुछ समय पहले सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा को लेकर भी यह चर्चा चली थी कि वे भाजपा में जाने वाले हैं। दरअसल राहुल गांधी के बेतुके बयानों और कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए अपने ही युवा साथियों की अनदेखी ने ये स्थिति पैदा कर दी थी। दरअसल कांग्रेस में जब नेतृत्व की तलाश थी, तब भी गांधी परिवार के भूत ने इन युवा नेताओं को अहम जिम्मेदारियों से दूर रखा।
चुनाव के दौरान भी जिस तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश और प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर सारा फोकस प्रियंका पर रखा गया, उससे भी सिंधिया आहत थे, साथ ही 2019 की जबरदस्त हार के बाद से पार्टी के कामकाज को लेकर उनकी हताशा चरम पर थी।
जाहिर है राजनीतिक महात्वाकांक्षा, आगे बढ़ने और नेतृत्व संभालने की चाहत ने सिंधिया को यह कदम उठाने पर मजबूर किया। हो सकता है कि सिंधिया ने ये जो शुरुआत की है, उसकी गूंज दूर तक सुनाई दे, क्योंकि यह बेचैनी सिर्फ सिंधिया की नहीं है।
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लेकिन यह ताज्जुब की बात जरूर है कि सिंधिया या इस यूथ ब्रिगेड को भाजपा ही एक सुरक्षित ठिकाना क्यों दिखता है जहां मोदी और शाह के कद के आगे तमाम लोग नतमस्तक रहते हैं और जहां अपनी पहचान खोने का संकट रहता ही है। क्या ऐसे राजनीतिक हालात को देखते हुए कांग्रेस के इस असंतुष्ट यूथ ब्रिगेड को कांग्रेस और भाजपा से अलग कोई मजबूत रास्ता नहीं बनाना चाहिए जो वास्तव में देश को नया विकल्प दे सके।
अगर सिंधिया को मध्यप्रदेश की राजनीति करनी है तो वहां भी उनके आगे भाजपा में ही कई चुनौतियां होंगी और कई कद्दावर नेता उन्हें आगे नहीं आने देंगे। और अगर केन्द्र में आना है तो महज राज्यसभा का सदस्य बनकर रह जाना ही उनकी परिणति हो सकती है। मंत्री पद तुरंत मिले न मिले, यह शाह और मोदी के रहमोकरम पर ही होगा।
वैसे भी मोदी सरकार में मंत्री बनकर भी तमाम कद्दावर नेता अपनी अहमियत खो चुके हैं। ऐसे में सिंधिया का यह दांव कहीं बाद में उनके लिए ही मुश्किल न खड़ी कर दे।
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