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किस्सागोई: दलेर मेहंदी के गानों की तरह हिट हैं उनके बचपन की शरारतों के किस्से
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किस्सागोई: दलेर मेहंदी के गानों की तरह हिट हैं उनके बचपन की शरारतों के किस्से

बॉलीवुड के प्रसिद्ध गायककार दलेर मेहंदी का बचपन बेहद दिलचस्प किस्सों से भरा है.
बॉलीवुड के प्रसिद्ध गायककार दलेर मेहंदी का बचपन बेहद दिलचस्प किस्सों से भरा है.

....फिर एक दिन ऐसा हुआ कि दलेर मेंहदी (Daler Mehndi) संगीत सीखने के लिए घर से भाग गए.

    आज उस कलाकार की कहानी जिसकी बुलंद आवाज की दुनिया कायल है. जिसके गाने के बजे बिना आज भी हिंदुस्तानी पार्टियां अधूरी हैं. ऐसा इसलिए कि डांस के नाम पर ना-नुकुर करने वालों के भी पैर उस कलाकार के गानों पर हिलने लगते हैं. उस खिलाड़ी का नाम है दलेर मेंहदी. दलेर मेंहदी अपनी पॉप एल्बम से लेकर फिल्मी गानों तक कामयाबी की गारंटी हैं. हिंदी फिल्मों के लिए उन्होंने बहुत ज्यादा प्लेबैक गायकी नहीं की है. लेकिन जब भी उन्होंने फिल्मी सुर साधे हैं वो अलग ही दुनिया में ले गए हैं. हाल के दिनों में आप फिल्म दंगल या बाहुबली का टाइटिल गाना याद कर लीजिए और पीछे जाना हो तो रंग दे बसंती का टाइटिल ट्रैक याद कर लीजिए या फिर याद कर लीजिए मृत्युदाता का ना ना ना ना ना रे...दलेर मेंदही सौ सुनार की एक लुहार की कहावत की तर्ज पर प्लेबैक गायकी करते हैं. दिलचस्प बात ये है कि दलेर मेंहदी की पॉपुलर पहचान भले ही उनकी एल्बम से या ताकत भरे फिल्मी गानों से है असल में वो एक बहुत पके कलाकार हैं.

    दलेर कहते हैं- “मैं खुद को बहुत खुशनसीब मानता हूं कि मेरा जन्म रागियों के परिवार में हुआ. जहां लोग कई पीढ़ियों से गाना गाते चले आ रहे थे. मेरे नाना की तरफ से तो अठारह पीढ़ियां संगीत से ही जुड़ी हुई हैं. हमारे परिवार के एक बुजुर्ग सिक्खों के छठे गुरू गुरू हरगोविंद सिंह साहब की फौज में भी थे. फौज के बाकि कामों के साथ साथ वो गाते भी बहुत अच्छा थे. यानि मैं किसी भी तरफ से बात करूं चाहे अपने दादा की तरफ से या अपने नाना की तरफ से हर तरफ संगीत ही संगीत था. वो भी असल संगीत. मेरी दादी के पिता भी बहुत अच्छा गाना गाते थे. वो अच्छी एक्टिंग भी करते थे. लिहाजा संगीत हमारे खून में हमें मिला है. मैं इस बात के लिए ऊपरवाले का बहुत शुक्रगुजार हूं. उन्होंने मुझे दुनिया में भेजा तो ऐसे परिवार में भेजा जहां संगीत की विरासत थी”.

    दलेर मेंहदी की नानी के पिता के बारे में कहा जाता है कि जब वो गाना गाकर आते थे तो उनके यहां पैसे गिने नहीं जाते थे बल्कि तराजू पर तौले जाते थे. लेकिन ये सारी कहानी 1947 के पहले की हैं. 1947 में बंटवारे के बाद दलेर मेंहदी के परिवार को भी संघर्ष करना पड़ा. लेकिन घर के बाग बगीचों की वजह से कभी खाने पीने की बड़ी दिक्कत नहीं आई. दलेर जब करीब पांच साल के थे तो उन्होंने अपने पिता जी से सीखाना शुरू किया.


    दलेर कहते हैं- “ये कोई नई बात नहीं थी. हमारे घर में किसी ने गाना सीखा तो किसी ने तबला बजाना. इस बात के लिए मैं अपने माता पिता का शुक्रगुजार भी हूं कि उन्होंने घर के साथ साथ बाहर के गुरुओं से भी हमें संगीत सीखने का मौका दिया. मतलब उस उम्र में घर में अलग से म्यूजिक की क्लास भी होती थी. मैंने संगीत को लेकर पिताजी को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया. इसीलिए उन्होंने कभी कोई डांट फटकार नहीं लगाई. मेरे पिता उस्ताद अजमेर सिंह खुद भी बहुत मंझे हुए कलाकार थे. उन्होंने शास्त्रीय संगीत में प्रभाकर किया था. हमारे बुजुर्गों में ये खास बात रही कि उन्हें सिर्फ ‘प्रैक्टिकल’ यानि यूं समझिए कि सिर्फ गायकी की जानकारी नहीं थी बल्कि गायकी का जो ‘थ्योरी’ पार्ट होता है वो भी हमारे बुजुर्गों को बहुत अच्छी तरह आता था. क्या राग है, किस समय पर गाते हैं जैसी जानकारी हमारे बुजुर्गों को अच्छी तरह मालूम थी. मेरे पिताजी ने भी इन बातों को अच्छी तरह पढ़ा था. वो पंजाब के गुरूद्वारा अनंतपुर साहिब में कीर्तन किया करते थे. 1960 के आस पास उन्होंने वहां ज्वॉइन किया था. जहां गुरू गोविंद सिंह साहब ने सिक्खों को बनाया. खालसा पंथ को बनाया. वहां से उन्हें फतेहगढ़ साहिब जाने का मौका मिला. वहां भी उन्होंने एक साल तक गाया. एक तख्त से दूसरे तख्त पर रागियों को भेजा जाता था. इसी तरह उन्हें फिर बिहार भेजा गया. इसके बाद हमारा परिवार पंजाब से बिहार पहुंच गया”.

    दलेर मेंहदी का जन्म बिहार में ही हुआ. इसका फायदा उन्हें ये हुआ कि उन्हें बाद में वहां के संगीत को भी जानने समझने का मौका मिला. पंजाब के साथ साथ बिहार का लोकगीत उन्हें समझ आया. वहीं पर शरारतों का दौर भी शुरू हुआ. दलेर अपनी शरारतों को याद करते हैं- “जैसे ही हरे चने का मौसम आता था तो हम इसी ताक में रहते थे कि हरे चने से लदी कोई ट्रॉली जा रही हो तो चने खाने को मिलें. बिना बताए खींचकर खाने में मजा ही अलग आता था. कई बात तांगे में लदकर चने जा रहे होते थे तो मैं वहां से भी फलियां खींच लिया करता था. ऐसे ही बाजार जाते वक्त अगर गन्ने से लदी कोई ट्रॉली या ट्रैक्टर दिख गया तो कुछ गन्ने तो खींच ही लिया करते थे. ऐसे ही जब 10-11 साल का हुआ तो पटना सिटी से पटना जंक्शन तक बगैर टिकट जाने में बड़ा मजा आता था. ट्रक के पीछे लटककर 12-12 किलोमीटर चले जाया करते थे. फिर कहीं सड़क पर जा रहे हैं और संगीत बजने की आवाज आ गई तो मैं बेधड़क बिना इजाजत वहां पहुंच जाता था. वहां जाकर मैं बताता था कि मैं भी आर्टिस्ट हूं. गाते हैं. उस समय में इन्हीं बातों का मजा था”. पढ़ाई लिखाई में दलेर का मन कम ही लगा. अपनी गायकी की बदौलत टीचर के दिल जीतते और आशीर्वाद पाते. लेकिन नंबर के मामले में मामला ढीला ही रहा. अलबत्ता फिल्में देखने में दलेर पूरी क्लास को ‘मॉटिवेट’ किया करते थे.

    ये किस्सा दिलचस्प है- “जब फिल्म देखने का प्लान बनता था तो मैं सबको ‘इंस्ट्रक्शन’ देता था कि जाओ जाकर घर से पैसे लेकर आओ. ‘मैसेज’ बिल्कुल साफ रहता था कि चाहे पापा से पिटाई भी पड़ जाए तो कोई बात नहीं लेकिन फिल्म देखने के लिए पैसे लेकर ही आना है. बचपन वैसे भी ऐसी प्यारी प्यारी शरारतों से भरा रहता है. मैं जब बहुत छोटा था तो एक बार मैंने दारा सिंह साहब को बिल्कुल करीब से देखा. मैं इतना खुश हो गया कि मैंने जोर से चीखकर मां को आवाज लगाई- देखो दारा सिंह आ गए. दारा सिंह आ गए. दारा सिंह ने मुझे उस दिन बहुत प्यार किया. तब मुझे नहीं पता था कि मैं कभी दलेर मेंहदी बनूंगा. मेरी किस्मत देखिए कि मैंने बाद में दारा सिंह के साथ शो किया. वो भी उन्हें पहली बार देखने के 25-26 साल बाद. वो शो भी कमाल ही था”.


    फिर एक दिन ऐसा हुआ कि दलेर मेंहदी संगीत सीखने के लिए घर से भाग गए. भागे भी तो गोरखपुर. वहां पहुंचने के लिए जो पैसे उन्हें चाहिए थे वो उनकी बहन ने दिए. वहां दलेर मेंहदी ने उस्ताद राहत अली से संगीत सीखना शुरू किया. वो बड़े गुलाम अली खान साहब के शिष्य थे. लेकिन जल्दी ही उन्हें लगा कि ठहराव सा आ गया है तो वो वहां से भागकर वापस आ गए. दलेर याद करके बताते हैं- “जब उस्ताद जी ने पहली बार उन्होंने मुझे सुना तो उनकी आंख में आंसू थे. उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर कहा कि देखो तुम कहती थी ना कि तुम्हारे कोई बेटा नहीं है. ये लो ऊपरवाले ने तुम्हें बेटा दे दिया. इसके बाद मैंने वहां रहकर एक साल तक संगीत सीखा. उस्ताद जी बड़े ठहराव के साथ संगीत सिखाते थे. मैं उन्हें पापा कहने लगा था. दिक्कत ये थी कि मुझे ये लगने लगा कि वो कुछ नया नहीं सिखा रहे क्योंकि कई महीनों तक मुझे वो एक ही चीज सिखा रहे थे”.

    फिल्मों में और फिल्मी गीतों में दलेर मेंहदी की दिलचस्पी शुरू से थी. उनका करियर शुरू भी हो चुका था. शुरुआती दिनों में बोलो तारा रा रा धूम मचा रहा था. कुछ रोज बाद उनके एक दोस्त ने पूछा कि मुंबई में काम कब करोगे? दलेर के मुंह से निकला- जब पाजी बुलाएंगे. दोस्त ने पूछा- कौन धर्मेंद्र पाजी? उन्होंने कहा नहीं बच्चन पाजी. ये किस्सा क्या था? दलेर मुस्कान के साथ बताते हैं- “उस रोज कहने को तो मैंने वो बात कह दी लेकिन दोस्त ने पलटकर पूछ लिया कि वो तुझे क्यों बुलाएंगे? मैंने कहा देखना वो मुझे जरूर बुलाएंगे. इस बात को दो महीने ही बीते होंगे कि बच्चन साहब का फोन आ गया”. इसके बाद तो परदे पर बच्चन साहब के साथ दलेर ने ठुमके लगाए और यही काम वो अब भी कर रहे हैं.

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