जो लोग मानते आ रहे थे कि अयोध्या विवाद में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने और राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ होते ही देश की सारी समस्याओं का एकमुश्त समाधान हो जाएगा, अब उन्हें यह देख कर निराशा हो सकती है कि सर्वोच्च अदालत के फैसले के अनुसार केंद्र सरकार द्वारा श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र नाम से ट्रस्ट गठित कर विवादित और अधिग्रहीत भूमि उसे सौंप देने के बावजूद ऐसा होता नहीं दिख रहा है। इस ट्रस्ट में सरकार द्वारा मनोनीत आइएएस अधिकारी हैं, तो प्रधानमंत्री के पूर्व मुख्य सचिव नृपेंद्र मिश्र भी इसमें हैं। मिश्र इस ट्रस्ट की भवन निर्माण समिति के अध्यक्ष बनाए गए हैं। इससे जुड़ी विपक्ष की आलोचनाओं को राजनीति बता कर छोड़ दिया जाए, तो भी यह सवाल तो जवाब मांगता ही है कि क्या इस ट्रस्ट से अपेक्षित लक्ष्य की प्राप्ति और देश की समस्याओं के निराकरण का मार्ग प्रशस्त हो गया है?

छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस करके ट्रस्ट में पिछड़ों की भागीदारी नहीं होने की आलोचना की है। उनका कहना है कि अयोध्या आंदोलन के लिए उन्होंने अपनी सरकार तक का बलिदान कर दिया था। साथ ही, उसमें उमा भारती और विनय कटियार जैसे नेताओं का भी योगदान था। फिर भी पिछड़ी जातियों का एक भी व्यक्ति ट्रस्ट की सदस्यता का पात्र नहीं समझा गया। उसके पंद्रह सदस्यों में एक दलित को छोड़ दें, जिसे औपचारिकता पूरी करने के लिए ट्रस्टी बनाया गया है, तो सभी सदस्य ब्राह्मण वर्चस्व के ही परिचायक हैं। यह न तो लोकनीति के अनुकूल है, न संवैधानिक परंपराओं के।

दूसरी ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष पर हमला करते हुए कहा है कि जिन लोगों ने 1992 में कारसेवकों पर गोली चलाने का निर्णय किया था, वे उनकी आलोचना की पात्रता खो चुके हैं। जबकि संविधान के जानकारों के अनुसार कारसेवकों पर गोली चलाने का निर्णय तत्कालीन सरकार का था और कार्यपालिका ने उसका निर्वाह भर किया था। इसलिए इसका दोष व्यक्तियों को नहीं दिया जा सकता। तथ्य तो यह है कि कार्यपालिका राजनीति से मुक्त, लेकिन सरकार का स्थायी तत्व है।

इसलिए जो भी सरकार चुन कर आती है, वह उसके निर्देशों और योजनाओं को तो किसी भी सूरत में लागू करती ही है। इस सिलसिले में कार्यपालिका पर इतना ही दोष डाला जा सकता है कि निर्वाचित सरकार के कानून और संविधान की व्यवस्थाओं से परे निर्णयों को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। लेकिन इस बात का क्या किया जाए कि संविधान में कानून की व्याख्या करने का अधिकार भी कार्यपालिका नहीं, उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में निहित है।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार बाबरी मस्जिद में चाहे मूर्ति रखना रहा हो, या उस पर कब्जे का प्रयास या फिर उसका ध्वंस, ये सभी आपराधिक कृत्य हैं और इनमें शामिल लोगों को अभियुक्त मान कर दंडित किया जाना चाहिए। इसी कारण सरकार द्वारा ट्रस्ट की घोषणा के समय दो सदस्यों- महंत नृत्यगोपाल दास और चंपत राय को, जो ध्वंस के अभियुक्त हैं, उसमें शामिल नहीं किया गया और उनका भविष्य ट्रस्ट की इच्छा पर छोड़ दिया गया। अब इनमें से एक ट्रस्ट के अध्यक्ष और दूसरे महामंत्री हैं। ट्रस्ट की पहली बैठक में पदाधिकारियों की नियुक्ति एवं दायित्व निर्धारण के बाद निर्णय किया गया है कि रामलला विराजमान को अस्थायी मंदिर से हटा कर दूसरे स्थान पर स्थापित किया जाए।

फिलहाल, यह निर्णय नहीं हुआ है कि पहले से चली आ रही सुरक्षा संबंधी व्यवस्था के तहत श्रद्धालुओं की उन तक पहुंच के बीच जो प्रतिबंध हैं, उन्हें लेकर क्या कार्ययोजनाएं या विधियां प्रयुक्त की जाएंगी, ताकि श्रद्धालु आसानी से उनके निकट पहुंच सकें। अभी अयोध्या नगरी ग्रीन, यलो और रेड जोन में बंटी हुई है, जिनमें रेड जोन पूर्णतया प्रतिबंधित है और सुरक्षा बलों के नियंत्रण में है। यलो जोन में आवागमन प्रशासनिक जरूरतों के आधार पर बनाए गए नियमों पर निर्भर है। वाहन तो बिना पास के इन क्षेत्रों से गुजरना संभव ही नहीं हैं।

दुनिया के तिरसठ देशों में रामकथा विद्यमान है और उसकी स्वीकार्यता का मुख्य कारण राम का गुणों और मर्यादाओं का रक्षक व वाहक होना ही है। लेकिन राम मंदिर निर्माण हेतु बने ट्रस्ट को लेकर दलित नेता उदित राज सहित कई लोग सवाल उठा रहे हैं कि कहीं यह दलितों कोे पूजा और तपस्या के अधिकार से वंचित करने का प्रयत्न तो नहीं है? वाल्मीकि रामायण में शम्बूक वध का उद्धरण देते हुए वे पूछ रहे हैं कि मनुस्मृति को निर्णायक धर्मग्रंथ के रूप में स्वीकारा जाएगा या संविधान में वर्णित व्यवस्थाओं के अनुरूप चला जाएगा? इन लोगों के सवाल को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस कथन के आलोक में देखने की जरूरत है कि देश को समाजवाद नहीं, बल्कि रामराज्य की आवश्यकता है।

हालांकि उन्होंने उस संविधान की शपथ ले रखी है, जिसमें समाजवाद एक पवित्र संवैधानिक मूल्य है। चूंकि योगी ने स्वेच्छया यह शपथ ले रखी है, उन्हें समाजवाद के बजाय रामराज्य चाहिए, तो बताना चाहिए कि वह राज्य लोकतंत्र की वर्तमान व्यवस्था के अनुकूल कैसे बनेगा? क्योंकि देश ने अब राजशाही के बजाय लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार रखी है और उसे संविधान के संकल्पों में शामिल किया है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेने वाला मुख्यमंत्री उसके मूल्यों की अवमानना करके रामराज्य की स्थापना का समर्थक होने की घोषणा करे, तो इसे अपने पद के दायित्व निर्वाह की उसकी पात्रता के अनुकूल माना जाए या प्रतिकूल?

जहां तक देश की समस्याओं का संबंध है, वे केवल पूजा पद्धतियों और धार्मिक मान्यताओं तक सीमित नहीं हैं। संविधान के अनुसार सारे देशवासियों को इन पद्धतियों को स्वीकारने या नकारने की स्वतंत्रता है, जिसका इस्तेमाल करके वे विभिन्न धर्मों, विचारों, मान्यताओं और पूजा पद्धतियों में बंटे हुए हैं। ऐसे लोग भी नागरिक होने की पात्रता से वंचित नहीं होते, जिन्हें अनीश्वरवादी कहा जाता है। षड्दर्शनों में भी तीन को अनीश्वरवादी कहा गया है, लेकिन वे धार्मिक ग्रंथों से पृथक नहीं किए गए हैं। पूजा पद्धतियों के विवाद और संघर्ष पहले भी होते आए हैं और अभी भी जारी हैं, लेकिन हमारे जैसे लोकतांत्रिक देश में राज्य और उसकी व्यवस्था से उनमें पक्षकार की भूमिका निभाने की नहीं, अलग रहने की ही अपेक्षा की जाती है।

अयोध्या में एक पुराने विवाद की समाप्ति और ‘वहीं’ राम मंदिर के निर्माण से लोगों को प्रसन्नता हो सकती है, लेकिन जब तक इससे सद्भावना का क्षेत्र विकसित नहीं होता, तब तक उसकी उपादेयता सवालों के घेरे में ही रहेगी। ऐसे में राम मंदिर निर्माण के लिए गठित ट्रस्ट जिस तरह जाति और वर्ग संबंधी विवाद से घिर रहा है, उससे इसकी आशा भी कैसे की जा सकती है? क्या वह हमारे उस अतीत की ओर देख पाएगा, जिसमें विवादों से मुक्ति के बाद हम नए प्रयोगों के तहत लोकेच्छाओं के नजदीक पहुंचने में सफल होते रहे हैं? केंद्र सरकार का दायित्व था कि वह ट्रस्ट गठित करते हुए उससे जुड़ी सारी संभावनाओं और अंदेशों पर सम्यक विचार करती। समझती कि आंतरिक विवादों से ज्यादा परेशानियां बढ़ती हैं और उनसे निपटना ज्यादा कठिन होता है।
लेकिन निराश होने की आवश्यकता इसलिए नहीं है, क्योंकि हमने लोकतंत्र को स्वीकार कर रखा है, जिसमें जनता की निर्णायक शक्ति ही सारे समाधानों को स्वीकारने, धारित करने या नकारने की सबसे बड़ी कारक होती है।