हाल के वर्षों में ज्यादातर देशों में सबसे ज्यादा जोर इस बात पर रहा है कि अर्थव्यवस्था की तस्वीर को कैसे सबसे मजबूत बताया जाए और उसकी चमकती तस्वीर पेश की जाए। हालांकि इस मोर्चे पर कितनी उपलब्धियां हासिल की जा सकी हैं, यह जमीनी स्तर पर आमतौर पर देखने में आता है। लेकिन क्या अर्थव्यवस्था के केवल चमकते आंकड़ों से किसी देश की आबादी की खुशहाली को मापा जा सकता है?

शायद इस तरह के आंकड़ों की असली परीक्षा शहरों-महानगरों से लेकर ग्रामीण इलाकों में बसे लोगों के जीवन स्तर और बुनियादी जरूरतें पूरी होने के मामले में होती है। इस लिहाज से देखें तो भारत में अर्थव्यवस्था को आंकड़ों की तस्वीर में देखने की जितनी कोशिश की गई, उतना ध्यान शायद आम लोगों तक उसके लाभ पहुंचाने पर नहीं दिया गया। यही वजह है कि जिन कसौटियों पर एक व्यक्ति और समाज खुद, अपने परिवार के जीवन में और आसपास खुशी को महसूस कर पाता है, उन पर हमारे देश को अभी काफी लंबा सफर तय करना बाकी है। गौरतलब है कि हाल ही में जारी हुए विश्व खुशहाली रिपोर्ट में दुनिया के कुल एक सौ अस्सी देशों के बीच भारत को एक सौ इकतीसवां स्थान हासिल हो पाया है।

दरअसल, विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राष्ट्र बाल कोष और दि लैंसेट मेडिकल जर्नल के संयुक्त तत्त्वावधान में किए गए एक शोध के दौरान विश्व के चालीस से ज्यादा बाल एवं किशोर स्वास्थ्य विशेषज्ञों के एक आयोग ने इस बात का आकलन किया कि संबंधित देश अपने यहां के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और खुशहाली सुनिश्चित कर पाते हैं या नहीं। इस बात से शायद ही किसी को असहमति हो कि किसी भी देश में आर्थिक विकास के दावे भले ही कितने ही बढ़-चढ़ किए जाएं, लेकिन वहां किशोरों और युवाओं के सामने शिक्षा और खुश रहने के हालात हासिल कर पाना संभव नहीं हो पा रहा तो वह किस काम का!

इसीलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकास के आकलन में खुशहाली के सूचकांक को इस बात से तय किया जाता है कि किसी देश में मां और पांच साल से कम आयु के बच्चे की उत्तर जीविता कितनी है, बच्चों के पलने, बढ़ने, उनके लिए स्वास्थ्य सुविधाएं, बुनियादी साफ-सफाई, आत्महत्या दर और भीषण गरीबी की क्या हकीकत है। अफसोस की बात है कि हमारे देश में विकास के इन अपेक्षित वास्तविक मानकों को मजबूत करने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि हमारा देश अभी मातृ और शिशु की मृत्यु-दर की कसौटी पर भी संतोषजनक स्थिति में नहीं है। बाकी मामलों का आकलन इससे जुड़ा हुआ है।

सवाल है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में हर तरफ कारोबार और विकास के शोर में नौनिहालों को टिकाऊ विकासात्मक भविष्य देने के लिए पर्याप्त प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा है? विकास के विज्ञापनों के बीच ऐसी परिस्थितियां क्यों नहीं मुहैया कराई जा रही हैं जो हर बच्चे के विकसित होने और स्वस्थ भविष्य के लिए जरूरी हैं। खुशहाली सूचकांक में अगर हम इस दुखद तस्वीर के रहते दुनिया में महाशक्ति बनने की बात करते हैं तो इसका आधार कितना मजबूत है?

फिर आज तकनीकी क्रांति के दौर में तेजी से बदलते हालात में किसी भी देश के कितने लंबे अरसे तक महाशक्ति बने रहने की स्थिति बनी रह सकती है? क्या यह जरूरी नहीं है कि खुशहाली सूचकांक तय होने की कसौटियों को विकास के अनिवार्य पैमानों में शामिल किया जाए, ताकि व्यक्ति और समाज का जीवन-स्तर ऊपर उठ सके और वह वास्तविक खुशी को महसूस करे?