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चुनाव में पैसा आता कहां से है? देता कौन है? कोई तो बताए!

4 वर्ष पहले
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प्रतीकात्मक फोटो। - Dainik Bhaskar
प्रतीकात्मक फोटो।

पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टियों ने जो खर्च किया अब उसकी रिपोर्ट आई है। भाजपा को जीती हुई एक सीट चार करोड़ में और कांग्रेस को एक सीट 15 करोड़ में पड़ी। आखिर इतना पैसा आता कहां से है? जिस दिन यह स्पष्ट हो गया कि ये पैसा कहां से आया, चुनाव स्वच्छ हो जाएंगे। जीते-हारे सब को मिला लें तो भाजपा के हर प्रत्याशी पर लगभग तीन और कांग्रेस के हर प्रत्याशी पर लगभग दो करोड़ खर्च किए गए। इनकम टैक्स आप (पार्टियां) देते नहीं। इस बारे में आरटीआई के जरिए आप से कोई कुछ पूछ नहीं सकता। आम आदमी का टैक्स आप को कम करना नहीं है। ऊपर से टैक्स लाद लादकर कहते हैं कि मध्यम वर्ग अपनी फिक्र खुद कर लेगा। टैक्स नहीं देंगे तो सड़क कैसे बनेगी? बिजली कहां से आएगी? क्या इन सड़कों पर पार्टियां नहीं चलतीं? क्या बिजली का इस्तेमाल भी वे नहीं करतीं? कोई हिसाब तो हो? कभी तो हो? फिर जीतकर भी इन सांसदों ने आम लोगों का क्या भला कर दिया? कोई तो गिनाए?  आखिर आपके आने से कोई तो फर्क पड़ना चाहिए! कुछ भी तो नहीं बदला!  रात भी वैसे ही आंखें मूंदे आती है। तारे भी उसी तरह सारी रात जमाइयां लेते हैं। सूरज भी उसी तरह आंखें मलते निकलता है। काश! आपके आने से कोई फर्क पड़ता जीने में! प्यास न लगती पानी की या नाखून बढ़ना बंद हो जाता। बाल हवा में न उड़ते या धुआं निकलता सांसों से! कुछ भी तो नहीं बदला। फिर ऐसा क्या है कि तमाम सहूलियतें नेताओं को, पार्टियों को ही मिलती जाएं और उन्हें पूरा करने के लिए आम आदमी टैक्स भरता जाए? फिर जो लोग करोड़ों खर्च करके चुनाव जीतते हैं, उनसे ईमानदारी की आशा भी कोई कैसे करे?  दूसरी तरफ हैं हम आम आदमी। हमें किसी की नहीं पड़ी है। सवाल पूछना ही नहीं चाहते।  भावनाओं में बहकर वोट दे आते हैं। फिर पांच साल भुगतते हैं। पड़ोसी के घर आग लग गई तो हमें क्या? और किसी ने कहा- आपके घर आग लग गई तो कहते हैं तुम्हें क्या? नोटबंदी से इस देश का कोई भला हुआ हो या नहीं, लोगों को ये सिर्फ इसलिए अच्छी लगी कि वे पड़ोसियों से खार खाए बैठे थे। मेरे सामने मर्सिडीज में निकलता था, अच्छा हुआ! मेरे आगे पैसों का रौब झाड़ता था, अच्छा हुआ।  आखिर कोई तो आवाज उठे कि इन पार्टियों ने चुनाव खर्च का अरबों रुपया कहां से कमाया? किस उद्योगपति को क्या लालच देकर हड़पे? और जीतने के बाद उनका क्या भला किया? किस तरीके से उसे लाभ पहुंचाया? और इस प्रक्रिया में हमारा क्या नुकसान हुआ? हमसे क्या-क्या लूट खाया? किसी को पता नहीं। कोई खबर नहीं। आखिर यह कब तक होता रहेगा? क्यों होता रहेगा?  दरअसल, चुनावी महासमर होता ही ऐसा है कि इसमें गली-गली राजनीति पसरती जाती है। हर कोई पांच साल में अपने मोहल्ले, शहर, प्रदेश और देश में क्रांति लाने की बात कर रहा होता है। लेकिन क्रांति का सच यह है कि वह दो-चार साल में नहीं आती। ओशो ने कहा है- लंबे समय तक जो क्रांतिकारी नहीं रह सकता, उसे इस क्रांति-व्रांति के झंझट में पड़ना ही नहीं चाहिए। बहरहाल, राजनीतिक पार्टियों से उनकी आय और खर्च का हिसाब मांगना ही चाहिए। अभी के हालात तो ऐसे हैं कि उनके लिए पैसा पेड़ पर उग रहा है। पेड़ हिलाते हैं, पैसा गिरता है, चुनाव में झोंका जाता है और जीत पके सेब की तरह उनकी झोली में आ टपकती है। आखिर ये क्या है? ...और क्यों है?

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