क्या केजरीवाल का मुक़ाबला केजरीवाल से ही है?- दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020

  • ज़ुबैर अहमद
  • बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
अरविंद केजरीवाल

इमेज स्रोत, EPA

दिल्ली विधान सभा के आगामी चुनाव में सबसे बड़ा सवाल यही है कि अरविंद केजरीवाल के सामने कौन है? आम आदमी पार्टी भी बीजेपी से यही सवाल पूछ रही है कि दिल्ली में उसका मुख्यमंत्री पद का दावेदार कौन है?

लेकिन बीजेपी ने इस पर कुछ नहीं कहा है. दिल्ली की सियासत पर चार दशकों से नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक पंकज वोहरा कहते हैं, "बीजेपी चाहेगी कि ये चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल हो लेकिन सबको मालूम है कि मोदी या अमित शाह दिल्ली के मुख्यमंत्री तो बन नहीं सकते. जब तक बीजेपी केजरीवाल के ख़िलाफ़ किसी को खड़ा नहीं करती केजरीवाल बनाम कौन का सवाल बना रहेगा."

इस मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव कहते हैं कि ये चुनाव केजरीवाल बनाम केजरीवाल है.

संजीव कहते हैं, "ये चुनाव 2015 के केजरीवाल बनाम 2020 के केजरीवाल के बीच है, क्योंकि 2015 का केजरीवाल एक बाग़ी था, एक विद्रोही था, सड़क पर बैठने वाला एक प्रदर्शनकारी था, मुख्यमंत्री कम आंदोलनकारी ज़्यादा था. आज का केजरीवाल एक यथास्थितिवादी है, अपने काम के आधार पर चुनाव लड़ रहा है. आज का केजरीवाल समझदार है."

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 के चुनाव में दिल्ली में कई चुनावी रैलियां कीं थीं लेकिन इसके बावजूद उनकी पार्टी को 70 में से केवल तीन सीटें मिली थीं. इस बार उन्होंने अब तक एक बड़ी रैली की है और कई रैलियां करने वाले हैं.

नरेंद्र मोदी

इमेज स्रोत, Getty Images

क्या इसका वोटरों के बीच केजरीवाल बनाम मोदी वाला पैग़ाम जाएगा? आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता आशुतोष कहते हैं, "बिल्कुल नहीं. दिल्ली के वोटरों को पता है कि वो (मोदी) दिल्ली के मुख्यमंत्री नहीं हो सकते. 2014 के आम चुनाव में हमें लोग कहते थे कि संसद के चुनाव में मोदी को वोट देंगे और दिल्ली के चुनाव में केजरीवाल को."

बीजेपी की रणनीति

मनोज तिवारी

इमेज स्रोत, Getty Images

यहाँ ये स्पष्ट करना ज़रूरी है कि 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 32 प्रतिशत वोट पड़े थे जो 2013 के विधानसभा चुनाव से एक प्रतिशत ही कम था. लेकिन उसे 2013 में इसे 31 सीटें मिली थीं जबकि 2015 में केवल तीन. क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि वोटरों के बीच प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में कमी नहीं आई?

छोड़कर पॉडकास्ट आगे बढ़ें
दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर (Dinbhar)

वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.

दिनभर: पूरा दिन,पूरी ख़बर

समाप्त

संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, "वो ज़ोर लगाते हैं इसलिए उनके वोटों का आधार कम नहीं होता लेकिन वो जीत नहीं दिला सकते, क्योंकि पार्टी के पास जिताने वाले चेहरे नहीं हैं इस चुनाव में. बीजेपी के जो चेहरे सामने हैं वो लोगों को नहीं लुभाते."

उनका ये भी कहना था कि जब वोटर राष्ट्रीय चुनाव में वोट देते हैं तो प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा उनके सामने होता है और प्रधानमंत्री भी यही कहते हैं. "देखिए 2019 के चुनाव में कई जन सभाओं में उन्होंने उम्मीदवारों के नाम भी नहीं लिए लेकिन राज्यों के चुनावों में मोदी जी जितना भी दम लगाएं मतदाताओं को मुख्यमंत्री चुनना होता है, मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी हैं नहीं."

पिछले साल के आम चुनाव में और इसके पहले 2014 के आम चुनाव में भी दिल्ली और कई दूसरे राज्यों में वोटरों ने बीबीसी को बताया था कि वो उम्मीदवारों को देख कर नहीं बल्कि मोदी के नाम पर वोट दे रहे हैं. तो विधान सभा के चुनावों में नरेंद्र मोदी का करिश्मा काम क्यों नहीं करता है?

आशुतोष के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली का वोटर मोदी को चुनता है, उनका करिश्मा काम करता है लेकिन जब "दिल्ली असेंबली चुनाव की बात आती है तो उसके दिमाग़ में स्पष्टता होती है कि वो केजरीवाल को वोट देगा."

स्मृति इरानी

इमेज स्रोत, Getty Images

उनके मुताबिक़ इसका कारण ये है कि "वोटर को लगता है कि जैसे केंद्र में मोदी का कोई विकल्प नहीं है उसी तरह से दिल्ली में उसे लगता है कि केजरीवाल का कोई विकल्प नहीं है." वो कहते हैं कि सच्चाई ये है कि अगले महीने चुनाव है "केजरीवाल बनाम मोदी" तो दूर असल सवाल ये है कि "केजरीवाल बनाम कौन?" अब तक जवाब ये आ रहा है कि कोई नहीं.

आशुतोष कहते हैं, "जब आप कांग्रेस पार्टी और बीजेपी दोनों के नेताओं को केजरीवाल के सामने देखेंगे तो कांग्रेस या बीजेपी का कोई बड़ा नेता उनके क़द का नज़र नहीं आता है. इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा ख़ुद अरविंद केजरीवाल हैं और उनके मुक़ाबले में कोई विपक्ष का नेता है नहीं."

बीजेपी के अंदर इस बात पर चिंता है कि मुख्यमंत्री का उम्मीदवार कौन हो? किसे इस पद के लिए चुनावी मुहिम से पहले आगे किया जाए? कुछ नाम सामने आते हैं जैसे मनोज तिवारी, जो पार्टी के दिल्ली अध्यक्ष हैं. हर्षवर्धन, विजय गोयल और मीनाक्षी लेखी.

लेकिन पंकज वोहरा कहते हैं कि इनमें से कोई भी केजरीवाल का मुक़ाबला कर नहीं सकता. पंकज वोहरा कहते हैं, "पार्टी के अंदर विद्रोह चल रहा है. बीजेपी ने ग़लत सीटें बाँटी हैं, ग़लत लोगों को उमीदवार बनाया है."

उनके मुताबिक़ दिल्ली में बीजेपी की पंजाबी लीडरशिप उसकी ताक़त थी जो अब नहीं है. "आजकल लीडरशिप पूर्वांचलियों की है. उनका भी आपस बे झगड़ा है. पूर्वांचल वोटों पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता बीजेपी को नुक़सान पहुंचा रहा है."

शीला दीक्षित

इमेज स्रोत, Getty Images

बीजेपी के अंदर घमासान के बीच एक नाम बार-बार उभर कर सामने आ रहा है और वो है केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी का. क्या दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी का नया चेहरा स्मृति इरानी हों तो पार्टी अच्छा प्रदर्शन कर सकती है? आशुतोष कहते हैं कि स्मृति इरानी का क़द बड़ा है, उनकी छवि भी ठीक है और ये कि वो एक दबंग महिला के रूप में देखी जाती हैं लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है. अगर छह महीने पहले उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में लाया जाता तो कोई बात बनती.

पंकज वोहरा के विचार में स्मृति इरानी भी सामने आती हैं तब भी केजरीवाल का मुक़ाबला नहीं कर सकतीं.

वे कहते हैं, "स्मृति इरानी से बीजेपी को कोई फ़ायदा नहीं होगा. पिछली बार किरण बेदी को ये लेकर आए थे. कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ा. बीजेपी का नेता ऐसा होना चाहिए जो दिल्ली में कई सालों से काम कर रहा हो और दिल्ली के लोगों को जानता हो. हर्षवर्धन और विजय गोयल ऐसे दो नेता ज़रूर हैं, जो पूरी तरह स्थानीय हैं लेकिन हर्षवर्धन एक केंद्रीय मंत्री हैं और उनके लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद छोटा है. पार्टी के अंदर के लोगों के अनुसार विजय गोयल को पार्टी लीडरशिप गंभीरता से नहीं लेती.

पार्टी के सूत्रों के अनुसार नई दिल्ली से बीजेपी की दो बार चुनीं गई सांसद मीनाक्षी लेखी का भी नाम आया लेकिन उन्हें केजरीवाल को चुनौती देने वाला नहीं माना गया.

उधर ऐसा लगता है कि कांग्रेस के खेमें में भी केजरीवाल का मुक़ाबला करने वाला कोई नेता नहीं नज़र आता. शायद इसलिए इस बार भी पार्टी शीला दीक्षित के नाम पर चुनाव लड़ रही है.

दोनों पार्टियों में लीडरशिप के संकट को देखते हुए विशेषज्ञ ये कह रहे हैं कि ये चुनाव केजरीवाल बनाम मोदी नहीं है बल्कि केजरीवाल बनाम "कोई नहीं" हैं. लेकिन वोटरों के दिमाग़ में क्या चल रहा है ये स्पष्ट नहीं. विशेषज्ञ ये भी कहते हैं कि अगर चुनाव के नतीजे चौंका देने वाले हों तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)