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- Evening Is Lying In The Lap Of Night, The River Is Wrapped With Peepal
रात की गोद में शाम पड़ी है, दरिया लिपटा हुआ है पीपल से
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कड़ाके की ठंड है। सूरज भी डर रहा है। कभी वह बादलों का घूंघट डाले रहता है, तो कभी कोहरे की चादर ओढ़ कर सोया रहता है। जागता भी है तो लगता है बादलों की बेंच पर बैठकर किसी याददाश्त की तरह गूंजती उदासी के लंबे-लंबे घूंट भर रहा हो। ज्यादा भावुक होता है तो आंसू भी निकल आते हैं। हम लोग उसे मावठा कहते हैं। फसलों के लिए अच्छा भी। ख़राब भी। मतलब फसल गेहूं की हो तो अच्छा और अगर चने की हो तो सूरज के आंसू सीधे किसान की आंखों में दिखाई देने लगते हैं। धरती पर ठंड के अलग-अलग रूप हैं और अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रभाव भी। कहीं रात की गोद में शाम पड़ी सिसक रही है। कहीं दरिया लिपटा हुआ है पीपल से और ज़ोर-ज़ोर से दहाड़ें मार रहा है। ... और कहीं पहाड़ियों के सीने पर पहली-पहली घास उगी है। हे! ठंड तुम कहां से उपजी हो। तुम्हारी दृष्टि झक सफ़ेद। दैत्यमय भी। देवमय भी। तुम्हारी आंखों में, भोर भी और सांझ भी। तुम्हारी सुगंध, जैसे सांझ की आंधी। तुम्हारे होंठ, जैसे करेले का घूंट। तुम एक हाथ से ख़ुशी बीजती हो और दूसरे हाथ से तबाही। जैसे सपने जम जाते हैं, पत्तों पर ओस की बूंदें पड़ी जम रही हैं। कई राज्यों में तो खेतों में लहलहा रही फसलों की कतारों के बीच की ‘नो मेन्यू लैंड’ को बर्फ़ ने हथिया लिया है। किसान इस बीचोबीच की घास को न छू सकता, न उखाड़कर फेंक सकता। वैसे तो धरती, आसमान सब नौ-नौ हैं लेकिन ठंड के जमाने में दो-दो आसमान दिखते हैं। कहीं असली, कहीं कोहरे वाला आसमान। कोहरे वाला आसमान लोगों की जान का दुश्मन बना बैठा है। ख़ासकर, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब में। भाई लोग फिर भी नहीं मानते। सौ से नीचे कोई गड्डी चलाने को तैयार ही नहीं होता। राजस्थान धूज रहा है। जैसे नेशनल रजिस्टर की सारी गाज यहीं गिरने वाली हो। उत्तर प्रदेश ठिठुर रहा है। जैसे प्रदर्शनों के दौरान हुई तबाहियों का सारा हिसाब योगीजी अचानक आई ठंड से ही वसूलने वाले हों। बहरहाल, ठंड ज़बर्दस्त है और विपक्ष के खिलाफ तमाम हथियार खोल देने वाली केंद्र सरकार ने भी कंबल ओढ़ लिया है। उधर, विपक्ष भी सड़क से घर में सिमट गया है। जैसे दांतों के बीच जीभ सिमटी रहती है। दिल्ली में ठंड है, लेकिन केजरीवाल का कंबल उतर गया है। वे लगातार लोगों के लिए काम कर रहे हैं। चुनाव इसी साल हैं और भाजपा या कांग्रेस की अब यहां वैसी हैसियत नहीं रही, जैसी पांच साल पहले हुआ करती थी। दिल्ली वाले आप के भरोसे ही ख़ुश लग रहे हैं। ख़ैर मिट्टी डालिए इन राजनीतिक बातों को, कड़ाके की ठंड के इन दिनों में भी ठंडे पानी से नहाने वालों से पूछिए उनके हाल! साफ़-साफ़ कहने लगते हैं-
हे ठंड! तुम्हारे गहनों की छटा कितनी भयानक!
तुम्हारा आलिंगन!
जैसे कोई कब्र में उतरता जाए!!